भारतीय खाद्य टोकरी: विविधता की आवश्यकता - यूपीएससी, आईएएस, सिविल सेवा और राज्य पीसीएस परीक्षाओं के लिए समसामयिकी


भारतीय खाद्य टोकरी: विविधता की आवश्यकता - यूपीएससी, आईएएस, सिविल सेवा और राज्य पीसीएस  परीक्षाओं के लिए समसामयिकी


संदर्भ

कोविड-19 महामारी ने हमारे भोजन की टोकरी में बदलाव की आवश्यकता पर ध्यान केंद्रित किया है। इस महामारी ने खाद्य आपूर्ति श्रृंखलाओं को बाधित कर दिया है, फलतः पोषक खाद्य न्नों की उपलब्धता भी बाधित हो गई है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने चेतावनी दी है कि वैश्विक जीडीपी में प्रत्येक 1% की गिरावट के साथ 7 लाख अतिरिक्त बच्चे कुपोषण का शिकार हो सकते हैं। लॉकडाउन के कारण भारत जैसे प्रचुर खाद्य भंडार वाले देशों में भी यह व्यवधान देखा जा रहा है। इस संकट को भारत में भोजन की टोकरी को अधिक पोषण युक्त के अवसर के रूप में देखा जाना चाहिए। वर्तमान में भारतीयों के भोजन की टोकरी में अनाज (चावल और गेहूं) की प्रधानता है और दालें भारतीयों विशेषकर शाकाहारियों के लिए प्रोटीन का एक बड़ा स्रोत हैं। अतः दालों को बढ़ावा देकर भोजन की टोकरी में विविधता के साथ पोषण और पारिस्थितिक लक्ष्यों को भी प्राप्त किया जा सकता है।

भोजन में दाल का महत्व

  • दलहन दुनिया में सबसे अधिक उपयोग किए जाने वाले खाद्य पदार्थों में से एक है। इससे प्रोटीन और फाइबर प्राप्त होता है, और यह विटामिन तथा खनिज जैसे लोहा, जस्ता और मैग्नीशियम का एक बड़ा स्रोत है। दलहन खाद्य सुरक्षा में कई तरह से योगदान देता है, जैसे वे पोषण युक्त भोजन का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। साथ ही किसान द्वारा इनका उत्पादन बढ़ाकर अच्छी आय भी प्राप्त की जा सकती है।
  • दलहनी फसलें उत्पादन प्रणालियों के महत्वपूर्ण घटक हैं जो जलवायु परिवर्तन के भी अनुकूल होती हैं। दलहनी फसलें वातावरण में मौजूद नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करके इसे मिट्टी में मिश्रित करने में सक्षम होती हैं।
  • दलहनी फसलें कम पानी गहन होती हैं इसलिए भारत में शुष्क कृषि के लिए उपयुक्त है। अतः यह सिचाई के लिए उपयुक्त पानी के तनाव को कम करने के लिए पारिस्थितिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है।
  • कुछ दलहनी फसलें मिट्टी से बंधे फॉस्फोरस को भी मुक्त करने में सक्षम हैं।
  • नाइट्रोजन और फास्फोरस दोनों बढ़ते पौधों के लिए आवश्यक पोषक तत्व हैं। दलहनी फसलों की स्वाभाविक रूप से बढ़ने की क्षमता कृत्रिम उर्वरकों और कीटनाशकों की आवश्यकता को कम तो करती ही है साथ ही भूमि की उत्पादकता में भी सुधार करती है।
  • उर्वरकों और कीटनाशकों के कम प्रयोग से पर्यावरण प्रदूषण और पर्यावरण पर पड़ने वाले अनउपेक्षित प्रभावों का जोिखम भी कम हो जाता है।

भारत में दालों का उत्पादन एवं उत्पादकता

  • भारत इस समय दुनिया का सबसे बड़ा दलहन उत्पादक और उपभोक्ता है। भारत में अरहर (तुअर) और चना मुख्य रूप से उत्पादित की जाने वाली दलहनी फसलें हैं। अरहर दक्कन के पठार में उत्पादित की जाने वाली खरीफ की एक प्रमुख फसल है। दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रें में इसे रबी की फसल के रूप में भी उगाया जाता है। इसके कुल उत्पादन का 33% हिस्सा महाराष्ट्र में उत्पादित किया जाता है। उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात अन्य प्रमुख उत्पादक राज्य हैं। चना रबी काल में पैदा होने वाली एक प्रमुख फलीदार फसल है जिसके प्रमुख उत्पादक क्षेत्र मध्य प्रदेश की केंद्रीय उच्च भूमि और उत्तर प्रदेश का बुंदेलखंड क्षेत्र है।
  • भारत में 2018-19 फसल वर्ष (जुलाई-जून) के दौरान 23.40 मिलियन टन दालों का उत्पादन किया गया, जबकि वार्षिक घरेलू मांग 26-27 मिलियन टन की है। उत्पादन और मांग के इस अंतर को आयात के माध्यम से पूरा किया जाता है। हालांकि, चालू वर्ष के लिए, सरकार ने 26.30 मिलियन टन दालों के उत्पादन को लक्षित किया है और इसके 2030 तक बढ़कर 30 मिलियन टन होने की उम्मीद है।
  • भारत में दलहन उत्पादन और उत्पादकता दोनों ही बहुत कम है जो भविष्य की मांग को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है। अध्ययनों के अनुसार कम उत्पादकता के प्रमुख कारण कीटों (फली भेदक कीट है जो 50% उपज हानि का कारण बनता है) और बीमारियों का प्रकोप, मौसम संबंधी घटनाएँ तथा उर्वरकों का अनुचित प्रयोग आदि हैं। यदि भारत को आयात पर निर्भर हुए बिना भविष्य की मांगों को पूरा करने के लिए पैदावार को 30% तक बढ़ाना है तो दलहनी फसलों को प्रभावित करने वाली इन समस्याओं पर ध्यान देना होगा।

दालों का उत्पादन एवं उत्पादकता बढ़ाने हेतु आवश्यक कदम

  • वर्ष 2030 में हमारे देश की आबादी 150 करोड़ के लगभग हो जाएगी, जिससे दालों की अनुमानित मांग बढ़कर 33 मिलियन टन हो जाएगी। अगर हमें आयात से बचना है और आवश्यकताओं को पूरा करना है, तो इस दशक में हमारी मौजूदा पैदावार की दर 835 किग्रा/हेक्टेयर में कम से कम 30% की बढ़ोत्तरी करनी होगी। इसके लिए निम्नलििखत महत्वपूर्ण कदम उठाए जा सकते हैं-
  • अनुसंधान में निवेशः पैदावार में वृद्धि, प्रोटीन प्रचुरता और दलहनी किस्मों को फली भेदक कीटों के प्रति अधिक सहिष्णु बनाने के लिए अनुसंधान में निवेश किया जाना चाहिए।
  • चूँकि ये अधिकतर वर्षा आधारित फसलें होती हैं, इसलिए ऐसी किस्में विकसित करने की तीव्र आवश्यकता है जो तेजी से परिपक्व होती हों। अरहर की हाइब्रिड किस्म विकसित करने के लिए हमें आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी का उपयोग करना चाहिए। कीट प्रतिरोधी किस्मों को विकसित करने के लिए बीटी तकनीक का उपयोग किया जा सकता है।
  • "प्रति बूंद अधिक फसलय् प्राप्त करने के लिए होज रील तकनीक जैसी सूक्ष्म सिंचाई प्रौद्योगिकियों के उपयोग को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इसके अलावा, सूखा प्रतिरोधी किस्मों का जीनोम अध्ययन करके और पानी के उपयोग की दक्षता को भी विकसित किया जा सकता है।
  • गन्ने और चावल के साथ दलहन उत्पादन के लिए मिश्रित फसल को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
  • परती भूमि को दलहन के माध्यम से खेती के उपयोग में लाया जा सकता है जिससे उसकी उर्वरता में भी वृद्धि हो सकेगी।

दालों का विपणन एवं किसानों की आय

  • दालों की कीमतों के मामले में किसानों को बाजार की अनिश्चितता का सामना करना पड़ता है। 2015-16 में कीमतों में उच्च उतार-चढ़ाव की वजह से अरहर दाल की मांग मे वृद्धि के साथ कीमतों में भी अत्यधिक वृद्धि हो गयी थी। सरकार ने खुदरा कीमतों को कम करने के लिए आयात प्रतिबंधों में ढील दी इससे आयात में वृद्धि हुई है और कीमतों में कमी आई। 2015 में उच्च कीमतों के कारण 2016 में किसानों ने दालों का अधिक उत्पादन किया। इसके कारण भारत में आयात और उच्च उत्पादन के चलते आपूर्ति अधिक हो गयी और कीमतें तेजी से गिरने लगी, जिससे किसानों को आय में कमी आई।
  • हालांकि न्यूनतम समर्थन मूल्य में लगातार वृद्धि की गयी है लेकिन उच्च आयात और आपूर्ति को देखते हुए दलहन की बाजार की कीमतें कम ही रहीं हैं। इसके साथ ही सरकार द्वारा दालों की खरीद भी कम की जाती है, जिससे किसानों को अपनी फसल बाजार कीमत पर बेंचनी पड़ती है, इससे किसानों आय कम हो जाती है।
  • इसलिए बाजार में ऐसे सुधार और पूर्वानुमानित आयात और निर्यात नीति की आवश्यकता जो किसानों की आय और उपभोक्ता हितों (कोई उच्च खुदरा मूल्य) को संतुलित करती हो। इसके लिए सरकार द्वारा निम्नलििखत उपाय अपनाए जा सकते हैं-
  • ई-नाम, एक राष्ट्र एक बाजार को प्राप्त करने में एक अच्छी पहल है। सभी राज्यों और कृषि उत्पाद एवं मंडी समितियों (एपीएमसी) को इसमें जोड़ने का प्रयास किया जाना चाहिए।
  • ग्राम स्तर के प्रसंस्करण केंद्र किसानों के लिए बाजार प्रदान कर सकते हैं। किसान-उत्पादक संघ और उद्यमियों को नीतिगत समर्थन प्रदान करके ऐसे प्रसंस्करण केन्द्रों को स्थापित करने की आवश्यकता है।
  • दालों के आयात और निर्यात के लिए अनुमानित नीतिगत वातावरण की आवश्यकता है। आयात के लिए अचानक लिए जाने वाले फैसले किसानों को संकट में डाल देते हैं।
  • पोषण मानकों में सुधार करने तथा किसानों के लिए एक बाजार प्रदान करने के लिए दलहन को सार्वजनिक वितरण प्रणाली और मध्याह्न भोजन में शामिल किया जाना चाहिए।

दलहनी फसलों से संबंधित चुनौतियाँ

  • दलहनी फसलों को प्रभावित करने वाले कारकों में वर्षा एक प्रमुख कारक है। भारत में दलहन उत्पादक क्षेत्र वर्षा आधारित क्षेत्रें के अंतर्गत आता है, इसलिए उनकी उत्पादकता वर्षा की मात्र और वितरण द्वारा नियंत्रित होती है।
  • वर्षा की तीव्रता और वितरण से खरीफ की दलहनी फसलें जल ठहराव (ऑक्सीजन तनाव) की चपेट में आ जाती हैं तथा वर्षा की कमी के चलते रबी की दलहनी फसलों की पानी के प्रति संवेदनशीलता बढ़ जाती है।
  • चरम मौसमी स्थिति जैसे कि तापमान के अचानक बढ़ने या कम हो जाने से पौधों के फूल मुरझा जाते हैें या जल्दी पकने लगते हैं फलतः अनाज की पैदावार कम हो जाती है।
  • कीट और बीमारियां भी दलहनी फसलों के लिए प्रमुख चुनौती है। राष्ट्रीय समेकित नशीजीव प्रबंधन अनुसंधान केंद्र (NCIPM) ने अपने अध्ययन में फली भेदक (हेलिकोवर्पा आर्मेगेरा), फ्रयूसेरियम विल्ट, रूट रोट्स, और चने में एस्कोचिआ ब्लाइट के द्वारा मध्य प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, गुजरात और तेलंगाना में दलहनी फसलों को 10-90% का नुकसान का रिकॉर्ड किया है। इन कीटों और मोजेक बाँझता रोग के कारण तूर की फसल को 15-60% तक की क्षति हो जाती है।
  • इन सब के अलावा छोटी जोत और सीमित दलहन उत्पादक क्षेत्र भी देश में दलहन के कम उत्पादन के लिए जिम्मेदार हैं।

दलहन उत्पादन बढ़ाने के लाभ

  • मृदा कार्बन सिस्टेस्ट्रेशन क्षमता का दोहन करने के लिए दलहन सर्वाेत्तम फसल है। फसल प्रणालियों में दलहनी फसलों को शामिल करके मृदा कार्बन अनुक्रमिक क्षमता का दोहन किया जा सकता है। एकल-फसल प्रणालियों की तुलना में अंतर-फसल या फसल आवर्तन उच्च मृदा कार्बन संचयन में अधिक कारगर होती है जैसे दलहनी फसलों के साथ आमतौर पर किया जाता है।
  • दलहनी फसलें जैविक खेती के लिए उपयुक्त है क्योंकि यह उच्च मूल्य वाली और कम उर्वरक की आवश्यकता वाली फसल के साथ जैविक खेती के लिए फसल / किस्मों के चयन के सभी महत्वपूर्ण मानदंडों को पूरा करती है।
  • दालें आमतौर पर अनाज (गेंहू और चावल) की तुलना में 2-3 गुना अधिक मूल्य प्राप्त करती हैं और पोषक तत्वों की आवश्यकता के रूप में आमतौर पर दालों को कम मात्र में पोषण की आवश्यकता होती है।
  • उच्च एमएसपी और अच्छे व्यापार के अवसरों के साथ, दलहन उत्पादक का एफपीओ फेडरेशन बनाकर स्थानीय क्षेत्र में रोजगार सृजन और क्लस्टर / फेडरेशन स्तर पर दालों के प्रसंस्करण से रोजगार के अवसर भी उत्पन्न हो सकता है।

आगे की राह

  • दलहन खाद्य सुरक्षा, पोषण और पारिस्थितिक संतुलन प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण है। इसके उत्पादन और खपत को बढ़ावा देने की जरूरत है। यह 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने के लक्ष्य के साथ-साथ सतत विकास लक्ष्यों (लक्ष्य 2-कोई भूख न रहे_ लक्ष्य 12-जिम्मेदार खपत) को प्राप्त करने में सहायक हो सकता है।

सामान्य अध्ययन पेपर-3

  • प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कृषि सहायता तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य से संबंधित विषय, जन वितरण प्रणाली-उद्देश्य, कार्य, सीमाएं, सुधार_ बफर स्टॉक तथा खाद्य सुरक्षा संबंधी मुद्दे_ प्रौद्योगिकी मिशन_ पशु पालन संबंधी अर्थशास्त्र।

मुख्य परीक्षा प्रश्न :

  • कोरोना महामारी के दौरान भोजन की टोकरी में बदलाव की आवश्यकता महसूस की जा रही है, जिससे लोगों को पोषणयुक्त भोजन प्रदान किया जा सके। टिप्पणी करें।