होम > Brain-booster

Brain-booster / 31 Jul 2019

(राष्ट्रीय मुद्दे) आरटीआई संशोधन विधेयक 2019 (RTI Amendment Bill 2019)

image


(राष्ट्रीय मुद्दे) आरटीआई संशोधन विधेयक 2019 (RTI Amendment Bill 2019)


एंकर (Anchor): कुर्बान अली (पूर्व एडिटर, राज्य सभा टीवी)

अतिथि (Guest): अंजली भारद्वाज (एनसीपीआरआई की संयोजक और आर टी आई कार्यकर्त्ता), संजय कपूर (वरिष्ठ पत्रकार)

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, संसद ने सूचना का अधिकार (संशोधन) विधेयक, 2019 को अपनी मंज़ूरी दे दी। इस विधेयक के ज़रिए आरटीआइ क़ानून 2005 के सेक्शन 13, 16 और 27 में बदलाव करने की योजना है। ये बदलाव केंद्रीय और राज्य सूचना आयुक्तों के कार्यकाल और वेतन से जुड़े हैं।

सरकार का कहना है कि वो इस विधेयक के ज़रिए मौजूदा आरटीआई कानून की विसंगतियों को दूर करना चाहती है। वहीँ सरकार के इस कदम का विपक्ष, आरटीआई कार्यकर्ताओं और पूर्व केन्द्रीय सूचना आयुक्तों ने विरोध किया है। उनका कहना है कि सरकार के इस क़दम से ये क़ानून कमज़ोर पड़ जाएगा, और इसका असल मक़सद नहीं पूरा हो पायेगा।

क्या है आरटीआई क़ानून?

आरटीआई एक्ट, 2005 भारत सरकार का एक क़ानून है, जिसका मक़सद नागरिकों को सूचना का अधिकार उपलब्ध करना है। कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग यानी DoPT सूचना का अधिकार और केंद्रीय सूचना आयोग का नोडल विभाग है।

  • इस क़ानून के तहत भारत का कोई भी नागरिक किसी भी सरकारी अथॉरिटी से सूचना माँग सकता है। संबंधित अथॉरिटी को 30 दिनों के भीतर नागरिक को जानकारी उपलब्ध करानी होती है।
  • अगर मांगी गई सूचना जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जुड़ी है तो ऐसी सूचना को 48 घंटे के भीतर ही उपलब्ध करना होता है।
  • तय समय सीमा में सूचना न पाने जैसी स्थिति में स्थानीय से लेकर राज्य और केंद्रीय सूचना आयोग में अपील की जा सकती है।
  • अगर कोई ऐसी सूचना मांगी गई हो जिससे देश की संप्रभुता, एकता और अखण्डता पर गलत असर पड़े, तो ऐसे में सूचना देने से इनकार किया जा सकता है।
  • ये क़ानून जम्मू-कश्मीर को छोड़कर पूरे भारत में लागू है।

आरटीआई क़ानून को लागू कराने के लिए मशीनरी

आरटीआई क़ानून के तहत केंद्र स्तर पर एक केंद्रीय सूचना आयोग के गठन का प्रावधान किया गया है।

  • इस आयोग में एक मुख्य सूचना आयुक्त और 10 या 10 से कम सूचना आयुक्त होते हैं।
  • इनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
  • इसी तर्ज़ पर, राज्य स्तर पर भी एक राज्य सूचना आयोग की व्यवस्था की गई है।
  • सभी संवैधानिक संस्थाएँ और संसद या राज्य विधानसभा के क़ानूनों के तहत बनाये गए संगठन आरटीआई के दायरे में आते हैं।

क्या बदलाव किया गया इस क़ानून में?

आरटीआई क़ानून के मुताबिक़ मुख्य सूचना आयुक्त समेत दूसरे सूचना आयुक्तों का कार्यकाल 5 सालों (या 65 साल की उम्र तक) का होता है। लेकिन मौजूदा संशोधन के तहत इसे बदलने का प्रावधान किया गया है। नए बदलाव के मुताबिक़,अब मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों का कार्यकाल केंद्र सरकार द्वारा तय किया जाएगा।

  • नए विधेयक के तहत केंद्र और राज्य स्तर पर मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों के वेतन, भत्ते तथा अन्य रोज़गार की शर्तें भी केंद्र सरकार द्वारा ही तय की जाएंगी।
  • आरटीआई क़ानून के मुताबिक़ यदि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त पद पर नियुक्त होते समय उम्मीदवार को किसी अन्य सरकारी नौकरी की पेंशन या सेवानिवृत्ति लाभ मिल रहा हो तो उस लाभ के बराबर राशि को उसके वेतन से घटा दिया जाता है। लेकिन इस नए संशोधन विधेयक में इस प्रावधान को ख़त्म कर दिया गया है।

बदलाव के पक्ष में सरकार का क्या तर्क है?

संशोधन को लेकर केंद्र सरकार का कहना है कि सूचना आयुक्त का वेतन और कार्यकाल चुनाव आयोग के वेतन और कार्यकाल पर निर्भर करता है। लेकिन चुनाव आयोग और सूचना आयुक्त का काम बिलकुल अलग-अलग है। इसका मतलब ये हुआ कि दोनों के स्टेटस और उनके काम करने की स्थितियां भी अलग-अलग हैं। गृह राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने लोकसभा में बताया कि केंद्रीय सूचना आयुक्त को सुप्रीम कोर्ट के जज के बराबर दर्जा दिया गया है, लेकिन इसके आदेश को उससे नीचे के कोर्ट यानी हाई कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है, जो कि एक विसंगति है।

बिल का विरोध क्यों?

विधेयक के विरोधियों का कहना है कि इस संशोधनों के ज़रिए केंद्र सरकार सूचना के अधिकार कानून की स्वायत्ता खत्म कर रही है। विपक्ष का तर्क है कि अब सरकार अपने पसंदीदा केस में सूचना आयुक्तों का कार्यकाल बढ़ा सकती है और उनके वेतन भी बढ़ा सकती है। लेकिन अगर सरकार को किसी सूचना आयुक्त का कोई क़दम पसंद नहीं आया, तो उसका कार्यकाल ख़त्म हो सकता है या फिर उसका वेतन कम किया जा सकता है।

आरटीआई की राह में कुछ दूसरी मुश्किलें

इस क़ानून की राह में सबसे बड़ा खतरा तो आरटीआई कार्यकर्ताओं को है। दरअसल कई बार आरटीआई के ज़रिए बड़ी गड़बड़ियों के खुलासे होने की गुंजाइश रहती है। ऐसे में, जिन्होंने ये गड़बड़ियां की होती हैं वे आरटीआई कार्यकर्ताओं के लिए दिक्कतें पैदा करना शुरू कर देते हैं। यानी इन कार्यकर्ताओं की पहचान छुपाने या उन्हें सुरक्षा मुहैया कराने के पुख़्ता इंतजाम नहीं हैं।

  • आरटीआई की राह में दूसरी सबसे बड़ी समस्या साल 1923 में बना शासकीय गोपनीयता कानून है। ग़ौरतलब है कि द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने इस क़ानून को ख़त्म करने की सिफ़ारिश की थी।
  • नौकरशाही में दस्तावेज़ों के रखरखाव और उन्हें सम्हालने की व्यवस्था बहुत लचर है। साथ ही, सूचना आयोगों को चलाने के लिये इफ्रास्ट्रक्टर और स्टाफ की भी कमी है।

इन मुद्दों पर कारगर साबित हुआ आरटीआई क़ानून

भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिहाज़ से आरटीआई क़ानून एक अहम हथियार साबित हुआ है। इस क़ानून के ज़रिए मंत्रियों की विदेश यात्राओं और उन पर होने वाले भारी-भरकम खर्चे का ब्यौरा जनता के सामने आया। इससे ऊँचे पदों पर बैठे लोगों पर एक नैतिक दबाव ये बढ़ गया कि वे लोग अब फालतू में विदेश यात्रा नहीं करते हैं। साथ ही, आरटीआई के दबाव के चलते इन ऊंचे पदों पर बैठे लोग अपनी संपत्तियों का ब्यौरा भी अब जनता के सामने रखते हैं। सरकारी नौकरियों के लिए आयोजित कराई जाने वाली परीक्षाओं में होने वाली तमाम गड़बड़ियों के खुलासे में आरटीआई कानून की अहम भूमिका रही है। ये आरटीआई कानून ही था जिसने आदर्श हाउसिंग, 2G स्पेक्ट्रम, कोयला आवंटन और कॉमनवेल्थ गेम्स जैसे बड़े घोटालों का खुलासा किया था।

निष्कर्ष

कुल मिलाकर आरटीआई की अहमियत से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन इसके दुरुपयोग पर भी लगाम लगाना जरूरी है। इसके अलावा नीति निर्माताओं को आरटीआई की राह में आने वाले दूसरी चुनौतियों पर भी ध्यान देना चाहिए।

किसी भी प्रश्न के लिए हमसे संपर्क करें