ब्लॉग : विकास और पर्यावरण के बीच जारी जंग by विवेक ओझा

सिडनी शेल्डन ने एक बार कहा था कि "यह कोशिश करें कि जब आप इस पृथ्वी पर आये थे फिर यहाँ से जाने के बाद इसको एक बेहतर स्थान के रूप में छोड़कर जाएं ।" विकास के नाम पर पृथ्वी से उसकी हरित अस्मिता छीनना एक अपराध करने जैसा है । मछली को जल से अलग करना , लकड़ी को जंगल से अलग करना , जंगलों को आग के हवाले कर देना , जैव विविधता पर विदेशी आक्रांता पादपों को हमला करने देना , प्रकृति के गुर्दे आर्द्र भूमियों को मरने के पहले मार देना , उनका डायलसिस तक ना करना इन्सान पिछले कुछ एक दशकों में भली भांति सीख गया है। शायद इसी दिन के लिए रिचेल कारसन ने अपनी अपनी पुस्तक साइलेंट स्प्रिंग में लिखा होगा कि पर्यावरण के प्रति इंसानी निष्ठुर ता के चलते एक दिन बसंत भी मौन होगा और कोई कोयल कूक नहीं लगाएगी।

अल गोर ने अपनी किताब दि अर्थ इन बैलेंस और जेम्स लव लॉक ने अपनी किताब रिवेंज ऑफ गाया में प्रकृति के प्रति इंसानी फितरत का वास्तविक चित्रण करते हुए चेतावनी दे डाली है। जेम्स लवलॉक ने यूंही नहीं कहा था " अफसोस की बात है, जंगल की तुलना में रेगिस्तान बनाना कहीं आसान होता है ।” वंदना शिवा अपने सेमिनारों में हर समय यह बताती नजर आईं कि विलुप्त हो रही फसलों व पौधों के संवर्धन की दिशा में कार्य करना असली पूंजी को प्राप्त करने के प्रयास जैसा है । उनकी संस्था नवधान्य अन्न स्वराज, जल स्वराज , भू स्वराज , बीज बचाओ सत्याग्रह की दिशा में काम करता है । पर्यावरण की सार्वभौम महत्ता बताने के लिए उनके नेतृत्व में एक अनूठा पृथ्वी विश्वविद्यालय भी कार्य करता है ।

भारत जैसे देश में पर्यावरण के सच्चे हितैषीयों की कमी नहीं है लेकिन फिर भी लगता है कि विकास के हाइवे पर सरपट भागती मानव सभ्यता ने पर्यावरण, इकोसिस्टम , इकोलॉजी , बायोडायवर्सिटी को कभी इतना नजरअंदाज नहीं किया जितना आज के समय में कर रहा है । नदियों के किनारे से बालू , मिट्टी , पत्थर को गैरकानूनी तरीके से मानव जाति साफ कर रही है , जगलों से बेशकीमती लकड़ियां, आयुर्वेदिक औषधियों वाले प्लांट्स का सफाया कर उसकी तस्करी की जा रही है । राष्ट्रीय पार्कों , वन्य जीव अभ्यारण्यों में लैंटाना जैसे खतरनाक पौधों को पनाह मिल चुकी है। कर्नाटक के बेलंदुर झील के अंदर घंटों तक आग लगे रहने की घटनाएं देखी गई हैं , झील के अंदर औद्योगिक अपशिष्ट मिश्रित झाग बेंगलुरु की सड़कों पर ऐसे तैरता है जैसे झाग की सुनामी आ गई हो । चेन्नई में आर्द्रभूमियों के नष्ट होने से विनाशक बाढ़ का सामना करना पड़ा है और तो और मुंबई और केरल जैसे जगहों को गंभीर बाढ़ का सामना करना पड़ा है । ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन ने आज आम आदमी की जिंदगी को बुरी तरह से प्रभावित किया है । ये दोनों किसी के साथ भेदभाव नहीं करते । अमीर हो या गरीब , रोजगारशुदा हो या बेरोजगार, विकसित देश हो या विकासशील देश सभी इन दोनों के जुल्म के शिकार हैं। हवा , मिट्टी , पानी , खेती , किसानी , तबियत, काम काज , दुधारू पशु सभी कुछ इन दोनों के गिरफ्त में हैं । पशु पक्षी , नदियां , तालाब , झरने , सागर , महासागर , वेटलैंड , कोरल रीफ़ , मैंग्रोव अपनी पहचान खोते जा रहे हैं ।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने सच ही कहा था कि पृथ्वी हर मनुष्य की जरूरत को पूरा कर सकती है, परंतु पृथ्वी मनुष्य के लालच को पूरा नहीं कर सकती है। हर जीव जंतु और वनस्पति साथ ही खनिज संपदा की तस्करी और दोहन करके भी पृथ्वी प्रतिशोध ना ले , ऐसा संभव नही है। वंदना शिवा ने भी कहा है कि अगर हम पृथ्वी की बेहतरी के लिए एक कदम बढ़ाते हैं तो पृथ्वी इस कार्य में हमारा बख़ूबी साथ देती है।

लेकिन हम पृथ्वी के सदभाव को जीतने की कोशिश ही नहीं करते । मानवीय सभ्यता ने विकास के नए प्रतिमान क्या गढ़े , आज हमें जुगनू दिखाई नहीं देता , कोयल की मधुर कूक सुनाई नहीं देती , ना मोर है ना मोरपंखी , गिलहरी भी कम दिखाई देती है। सांप नेवले की लड़ाई भी खोती जा रही है । धरती की बढ़ती तपन से इनका जीवन बदहाल हो गया है । सावन में आग अब मीका सिंह के अलावा यही दोनों लगाते हैं । जीव जंतु विलुप्त होते जा रहे हैं , लोग इस बात से बेखबर हैं कि छठवां मास एक्स्टिंक्शन वन्य जीवों और पादपों का सफाया कर देगा। कई जीव जंतु डायनासोर की तरह अतीत बन जाएंगे । लोगों को इससे कोई समस्या नहीं है एक अदना सा पेंगोलीन , ग्रेट इंडियन बस्टर्ड मरे तो मरे। इन मामलों में जबान और कान दोनों की कमी है । लेकिन साथ ही यह भी सच है कि जिनको इस पृथ्वी से प्यार है, जो इसे सुनना चाहते हैं उनके लिए धरती के पास अपरम्पार मधुर संगीत है ।

अब थोड़ी बात करते हैं जीव जंतुओं पर मंडरा रहे ख़तरे की । भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय ने 22 मई , 2019 को अंतर्राष्ट्रीय जैवविविधता दिवस के अवसर पर महत्वपूर्ण फैसला लेते हुए तय किया कि भारत के सभी महत्वपूर्ण एयरपोर्टों पर स्टार कछुओं , बाघों और पेंगोलिन जैसे संकटापन्न जीव जंतुओं की तस्वीर लगाई जाएगी ताकि लोगों को ये बताया जा सके कि इन जीव जंतुओं की अवैध तस्करी हो रही है , जिससे निपटना हम सबके लिए जरूरी है । आईयूसीएन ने बोला है कि पूरी दुनिया में पिछले एक दशक में अगर किसी वन्य जीव की सबसे ज्यादा तस्करी हुई है तो वो है पैंगोलिन । पैंगोलिन दुनिया का एकमात्र स्तनपायी जीव है जिसके शरीर पर केराटिन से बनी कई परत वाली ख़ाल पाई जाती है । इसकी तस्करी मुख्य रूप से इसके जीभ के लिए होती है । पैंगोलिन की जीभ उसके समूचे शरीर से भी लंबी होती है , इसकी लंबाई तकरीबन 40 सेंटीमीटर होती है । इस जीभ को काट कर उसका वाइन टॉनिक बनाया जाता है और भारत के जनजातीय समुदायों में गर्भवती अथवा दुग्धपान कराने वाली महिलाओं को ताकत बढ़ाने के लिए पिलाया जाता है । ऐसा माना जाता है कि कई प्रकार के त्वचा संबंधी रोग इससे दूर होते हैं । समूचे भारत में पाए जाने वाले सामान्य पैंगोलींन को इंटरनेशनल यूनियन फॉर द कंजरवेशन ऑफ नेचर ने ऐंडेंजरेड यानि संकटापन्न की श्रेणी में रखा है , जबकि केवल उत्तर पूर्वी भारतीय राज्यों में पाए जाने वाले चाईनीज पैंगोलीन को आइयूसीएन ने अपनी रेड डेटा सूची में क्रिटीकली एनडेंजर्ड की श्रेणी में शामिल कर रखा है । इसी प्रकार से भारत में ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, स्नो लेपर्ड, ओलिव रिडले कछुओं , समुद्री गाय , समुद्री खीरे , सिंह जैसी पूंछ वाले बंदर , नीलगिरी तहर, दक्षिण भारत के सॉन्ग बर्ड्स पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है ।

इसरो और नासा के आंकड़ों की मानें तो मरुस्थलीकरण की चपेट में आज भारत का एक बड़ा हिस्सा आ चुका हैं । इसरो अपनी रिपोर्ट में कह चुका है कि लगभग 30 प्रतिशत भारतीय भूमि लैंड डिग्रेडेशन यानी भूमि निम्नीकरण का शिकार हो चुकी है । 29.3 मिलियन हेक्टेयर भारत की भूमि निम्नीकरण का शिकार है । डिग्रैडेशन और डेजर्टिफिकेशन तेज गति से दिल्ली, त्रिपुरा, नागालैंड हिमाचल, मिजोरम में पांव पसार रहा है। वहीं राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, जम्मू और कश्मीर, कर्नाटक, झारखंड , उड़ीसा, मध्यप्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडू जैसे राज्य भारत के 24 प्रतिशत मरुस्थलीकरण के लिए जिम्मेदार हैं ।

वहीं सेंटर फॉर साइंस ऐंड इन्वाइरनमेंट की रिपोर्ट कहती है कि भारत के 90 प्रतिशत राज्यों में मरुस्थलीकरण पहुंच चुका है और 96.4 मिलियन हेक्टेयर भूमि मरुस्थलीकरण के प्रकोप के से जूझ रही है । भारत के 328.72 मिलियन हेक्टेयर में से इतना बड़ा भाग हमसे दूर भागता जा रहा । इन सबसे निपटने के तुरंत उपाय करने होंगे बाकी काम की गति पर लगाम लगाकर नहीं तो ना रहेगी धरती ना बजेगी बांसुरी।

महासागरों में बढ़ते प्रदूषण खासकर प्लास्टिक प्रदूषण से महासागरों का दम घुटा जा रहा है। वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर की लिविंग ब्लू प्लैनेट रिपोर्ट का कहना है कि 2050 तक महासागरों में मछलियां कम और प्लास्टिक ज्यादा होगा । विश्व भर के किसी भी कोने में रहने वाले आदमी की सांस फूलने लगे, तो वो घबराकर डॉक्टर का रुख करता है , समंदर के अंदर रहने वाले जीव जंतुओं का भी समुद्री तेल के रिसाव , प्लास्टिक , समुद्री जालों और ग्लोबल वार्मिंग से दम घुटता है । इन बेचारे निरीह जीवों के पास तो डॉक्टर भी नहीं हैं , इन्हें अपनी देखभाल खुद करनी पड़ती है।

कोरल यानि समंदर के शैवालों का ही उदाहरण लें लीजिए। आज कोरल ब्लीचिंग की घटना ने महासागरों को रोगी बनाना शुरू कर दिया है । महासागर के तलहटी में पाए जाने वाले प्रवाल का वहीं पड़ोस में पाए जाने वाले शैवाल यानि एल्गी से मधुर नाता है । कोरल के टिश्यू ( ऊतक ) में शैवाल का घर होता है । शैवाल कोरल के शरीर के अंदर आक्सीजन पैदा करता है और कोरल को अपने अपशिष्ट पदार्थ के निस्तारण में मदद करता है । शैवाल प्रवालों को ग्लूकोज, ग्लिसरोल और अमीनो एसिड की आपूर्ति करता है जो प्रकाश संश्लेषण के उत्पाद हैं और इस क्रिया के लिए बहुत जरूरी है । कोरल इन उत्पादों की मदद से अपने लिए प्रोटीन , वसा और कार्बोहाइड्रेट बनाता है और इन्हें बनाकर वह अपने लिए कैल्शियम कार्बोनेट के उत्पादन में सक्षम हो पाता है । प्रवाल ये उपकार नहीं भूलता वो भी शैवाल के लिए प्रकाश संश्लेषण के लिए जरूरी सुरक्षित वातावरण देता है । यहां पर सवाल उठता है कि हम अचानक से प्रवाल शैवाल की चर्चा क्यूं करने लगे ? तो इसका जवाब यह है की ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन जैसे खलनायकों ने समंदर के इन दोनों नायकों का जीना दुस्वार कर दिया है । इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज कहता है कि यदि समंदर का तापमान एक डिग्री सेल्सियस अधिक बढ़ता है तो शैवालों को अपने साथी प्रवाल का शरीर छोड़ना पड़ जाता है , यानि एल्गी कोरल के टिश्यू से बाहर निकल जाने लगता है , कोरल के लिए आक्सीजन मिलना मुश्किल हो जाता है , सांस उखड़ने लगती है और टिश्यू का रंग सफेद पड़ने लगता है और समंदर में अपने राइट टू सेल्फ डिटर्मिनेशन की लड़ाई हार कर उसकी मौत हो जाती है । आपको पता है इस मौत के लिए कौन जिम्मेदार है , सही समझ रहे हैं आप – पर्यावरणीय प्रदूषण और संवेदनहीन राष्ट्र। दुनिया के देश बही खाता लेकर मुनाफे के लिए मुनीम बने बैठे हैं । उन्हें क्या पता कि कोरल री़फ समंदर का वर्षावन , रेनफारेस्ट है। समुद्री जैवविविधता की नींव इन्हीं कोरल रीफ पर टिकी है । ऐसे ही दुनिया में ना जाने कितनी ही पर्यावरणीय पूंजी है , जो ख़तरे में है , पर विकसित देशों को आर्थिक पूंजी से मतलब है। शायद इसलिए रिचर्ड रोजर्स ने कहा था कि " अगर हमें पर्यावरण की गुणवत्ता में सुधार लाना है तो केवल एक ही तरीका है, सबको शामिल करना ।” एक सच्चे पर्यावरण प्रेमी की आवाज में अगर कोई शब्द सुनाई देगा तो वो होगा " तीन किलो की कुदाल मेरी कलम है, धरती मेरी किताब है, पेड़- पौधे मेरे शब्द हैं, मैंने इस धरती पर हरित इतिहास लिखा है”। ये शब्द उत्तराखंड के वृक्ष-मानव कहे जाने वाले विश्वेश्वर दत्त सकलानी के हैं जिन्होंने वृक्षों को प्रकृति की धरोहर के रूप में पूजा ।

विवेक ओझा (ध्येय IAS)


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