ब्लॉग : अमेरिका में ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन पर मुखर होते यूएन विशेषज्ञ by विवेक ओझा

यूएन मानवाधिकार परिषद् द्वारा नियुक्त 18 स्वतंत्र मानवाधिकार विशेषज्ञों ने हाल ही में एक बार फिर अमेरिका में संगठित स्तर पर होने वाले नस्लभेद को रोकने की सिफारिश अमेरिका से की है । अमेरिका से अपने यहां होने वाले नस्लीय भेदभावों या दूसरे शब्दों में कहें तो श्वेत अश्वेत के बीच के नस्लीय भेदभावों और रंगभेद को दूर करने के लिए तत्काल अमेरिकी प्रशासन द्वारा अपनी सामाजिक सांस्कृतिक प्रणाली और साथ ही कानून प्रणाली में सुधार करने की आवाज बुलंद की गई है । अश्वेतों के खिलाफ होने वाली अमेरिकी पुलिस बर्बरता को अमानवीय बताते हुए यूएन द्वारा नियुक्त इन स्वतंत्र मानवाधिकार विशेषज्ञों द्वारा एक समतामूलक समावेशन आधारित व्यवस्था को बनाने की अपील की गई है। दुनिया के सबसे मज़बूत लोकतांत्रिक मूल्यों , संरचना वाले देश से ऐसी अपेक्षा करना बिल्कुल जायज भी है। दुनिया को ब्लैक एंड व्हाइट में बांटना आधुनिक लोकतांत्रिक समाजों को कहीं से शोभा नहीं देता ।

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ...

पिछ्ले वर्ष अमेरिकी शहर पोर्टलैंड में राष्ट्रपति ट्रंप के समर्थकों और विरोधी प्रदर्शनकारियों के बीच हुई झड़प में एक अश्वेत व्यक्ति की मौत के बाद एक बार फिर दुनिया में ब्लैक लाइव्स मैटर विषय पर बहस तेज हो गई थी । इससे पहले मिनिपोलिस में जार्ज फ्लायड की हत्या ने रंगभेद और नस्लभेद के मुद्दे को एक संवेदनशील मुद्दे के रूप में उभारा। विकसित देशों में इसके चलते यह दबाव पड़ने लगा है कि वो अपने राष्ट्रीय कानूनों में रंगभेद और नस्लभेद विरोधी कठोर प्रावधानों का निर्माण करें और साथ ही उसका कठोर अनुपालन भी करें । ब्रियोना टेलर , एलिजा मैक्लेन , डियोन जानसन जैसी अश्वेत जिंदगियों को अमेरिकी पुलिस की बर्बरता के चलते जान से हाथ धोना पड़ा। अमेरिका ब्रिटेन सहित दुनिया के तमाम विकसित देशों में नस्लीय भेदभाव की घटनाएं देखी जा रही हैं और अश्वेत समुदाय का मानना है कि शासन तंत्र सुनियोजित व्यवस्थित तरीके से नस्लीय भेदभाव को अंजाम दे रहा है। क्या इसी दिन के लिए नेल्सन मंडेला ने राष्ट्रपति पद पर शपथ लेते हुए कहा था कि " कभी नहीं, कभी नहीं और कभी नहीं। यह खूबसूरत धरती कभी दूसरों के उत्पीड़न का अनुभव करेगी। अब स्वतंत्रता का राज होगा। मानवता के इससे बेहतर उपलब्धि के मौके पर सूरज कभी नहीं डूबेगा। ईश्वर अफ्रीका को आशीर्वाद दे ।

नस्लभेद साम्राज्यवादी , उपनिवेशवादी , पूंजीवादी ताकतों के हाथ में असमानता और भेदभाव की संस्कृति को फैलाने का उपकरण रहा है । यह मानव गरिमा और वर्ग बंधुत्व को तोड़ने का उपक्रम है। यह एक प्रकार का ग्लोबल नेपोटीज़्म है जिसमें एक नस्ल विशेष के लोगों के मध्य आपसी हितों के लिए एकता पाई जाती है । इससे विश्व के कई समाजों में भाई भतीजावाद की संस्कृति का उदय होता है । विभिन्न देशों में श्वेत भाईचारा और अश्वेत भाईचारा इसी आधार पर देखा जाता है । इन सबके मूल में उस अधीनस्थता और दासता की संस्कृति को विकसित करने की मंशा होती है जो किसी खास रेस के प्रभुत्व और वर्चस्व को बनाए रख पाने में मददगार साबित हो सके । 19 वीं और 20 वीं सदी का इतिहास साफ साफ बताता है कि नस्लभेद हो या रंगभेद कैसे इन्हें एक सुनियोजित ढंग से मजबूती दी गई जिससे एक खास नस्ल और रंग के प्रति घृणा और अति पूर्वाग्रह को एक विशिष्ट जनमानस के मनोविज्ञान का हिस्सा बनाया जा सके । कैसे शासन प्रशासन , कला , संस्कृति और साहित्य पर एक नस्ल विशेष के वर्चस्व की गाथा लिखी जा सके । तमाम मानवाधिकार आंदोलनों , सिविल सोसायटी आंदोलनों , वैश्विक संधियों और अभिसमयों के अस्तित्व में होने के बावजूद दुनिया के कई देशों में अभी भी यह शिष्टाचार, संस्कृति विकसित नहीं हो पाई है जो नस्लीय भेदभावों का समूल उन्मूलन कर दे। वहीं सबसे बड़े विरोधाभास तब नज़र आते हैं जब यही देश लोकतांत्रिक मूल्यों , मानवाधिकारों और समतामूलक दुनिया के पक्ष में दलीलें और गवाहियां देते नहीं थकते । कुछ देशों ने नस्लभेद और रंगभेद को अपनी आंतरिक और वैदेशिक नीतियों का अंग इस रूप में बनाया है ताकि अन्य नस्ल या रंग के इंसानों को उनके विकास की मुख्य धारा में प्रवेश ना मिल सके। व्यापक अर्थों में कहें तो यह समावेशन की संस्कृति को विकसित नहीं होने देता । साथ ही यह भी सच है कि नस्लीय और रंगभेद के समर्थन में चलने वाले तमाम मानवाधिकार और सिविल सोसायटी आंदोलनों के दवाब के चलते और अपनी विशिष्ट प्रतिभा और नवाचार के चलते अश्वेतों ने श्वेत व्यवस्था में अपनी जगह बनाई । श्वेत नेतृत्व वाली व्यवस्था ऐसी अनुमति देने के लिए विवश भी हुई । यहां विवशता शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया जा रहा है क्योंकि यदि आप नस्लभेद , रंगभेद , साम्प्रदायिकता , भाषावाद और क्षेत्रवाद जैसी विसंगतियों को देखें तो आप पाएंगे कि इन मानसिक विकारों को पूर्ण और खुले मन से समाप्त करने की भावना देशों और उनकी आंतरिक संरचनाओं में प्रभावी ढंग से विकसित नहीं हो पाई है। वर्तमान विश्व कहीं ना कहीं आज विवशता की संस्कृति में जी रहा है। सहज और न्यायपूर्ण प्रवृत्ति के साथ दुनिया की बेहतरी के लिए कई प्रभावी राष्ट्रों द्वारा कार्य नहीं हो पा रहा है ।

अमेरिका और ब्रिटेन में रहने वाले अश्वेत समुदाय के लोगों की मांग है कि अश्वेत लोगों को मनमाने तरीके से निशाना बनाने वाले धारा 60 के स्टॉप एंड सर्च रेग्यूलेशन का उन्मूलन किया जाए और अश्वेत समूहों के खिलाफ नस्लीय मेट्रोपॉलिटन पुलिस गैंग के हिंसा के ताने-बाने (वॉयलेंस मैट्रिक्स) को खत्म किया जाए। ऐसी सिफारिश एमनेस्टी इंटरनेशनल 2018 में कर चुका है। इस तरह विकसित देशों के आपराधिक न्याय प्रणाली में नस्लीय भेदभाव को खत्म करने वाले प्रावधानों का रखा जाना और उसका कठोरता से अनुपालन आवश्यक है। यहां यह विचार करने की बात है कि क्या विकसित देशों के स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे लोकतांत्रिक और अन्य मानवतावादी मूल्य केवल दिखावे के लिए हैं। यह कौन से उदारवादी विचारधारा व मूल्य हैं जो व्यक्ति की गरिमा का अवमूल्यन कर रहे हैं।

अश्वेत समुदाय के लोगों की मांग है कि शैक्षणिक संस्थानों में श्वेत समुदाय के विद्यार्थियों और शिक्षकों के द्वारा अश्वेत समुदाय के बच्चों को हास -परिहास का विषय ना बनाया जाए उन पर नस्लीय टिप्पणियां या उनका बुलिंग न किया जाए। क्या यह मांग कहीं से भी नाजायज है ? अगर नहीं तो ब्लैक लाइव्स मैटर इस प्लैनेट की बड़ी सच्चाई है । अश्वेत समुदाय के लोग यदि हम मांग करते हैं कि श्वेत समुदाय के प्रभुत्व वाले शिक्षण संस्थानों में स्कूली पाठ्यक्रम को उपनिवेशवाद के सांस्कृतिक बोध से मुक्त किया जाए और ब्रिटिश उपनिवेशवाद के शोषक चरित्र का निष्पक्ष तरीके से चित्रण किया जाए तो क्या यह मांग गलत है ? सोचिए कि यदि किसी अश्वेत समुदाय के बच्चों को स्कूली पाठ्यक्रम में यह पढ़ने को मिले कि वह लंबे समय तक दास रहे हैं, वे अधिकार और आधिपत्य के लायक नहीं रहे हैं और उन पर चाय बागानों में काम करना ही जचता रहा है तो इस भाव के साथ अश्वेत बच्चों पर क्या मनोवैज्ञानिक असर पड़ेगा और वह अपने सशक्तिकरण के लिए कहां तक तैयार हो सकेगा। इस रूप में यह स्पष्ट है कि दुनिया के कई सभ्य और सुसंस्कृत कहलाने वाले देश अपने विशिष्ट निहित स्वार्थों के लिए अपनी व्यवस्था में वर्गीय बंधुत्व विकसित नहीं होने देना चाहते । उनकी श्रेष्ठता की भावना उन्हें अश्वेत लोगों के लिए अधीनता की संस्कृति को विकसित कराने के लिए सक्रिय किए हुए है।

अगर अश्वेत समुदाय के लोग यह मांग करते हैं कि सभी स्कूली विषयों में अश्वेतों से जुड़े अध्याय, संदर्भ और उनकी मांग और सोच का प्रतिनिधित्व करने वाले कंटेंट शामिल हों , साथ ही अंग्रेजी साहित्य, संगीत और कला में भी उनका वास्तविक इतिहास शामिल हो तो इस मांग को भी गलत नहीं कहा जा सकता। अश्वेत समुदाय स्वास्थ्य सुविधाओं में अपने खिलाफ होने वाले नस्लीय भेदभाव के खात्मे की भी बात करता है और हेल्थकेयर में अश्वेत महिलाओं के साथ उचित व्यवहार और अश्वेत महिला मातृत्व मृत्यु दर को रोकने की मांग एक प्राकृतिक न्याय की मांग के रूप में करता है। ऐसी मांगों का दबाव ना हो तो कौन जानता है कि सुनियोजित तरीके से अश्वेत महिलाओं को मरने के लिए छोड़ दिया जाएगा।

नस्लभेद की परिभाषा में हो बदलाव -

मिसौरी की एक अश्वेत महिला केनेडी मिचम ने अमेरिकी मैरियम वेबस्टर डिक्शनरी के प्रकाशक को ईमेल कर मांग की है कि नस्लभेद शब्द की परिभाषा वर्तमान समय में उपयुक्त नहीं है और उसे डिक्शनरी में अपडेट कर सुधारा जाए और सबसे बड़ी बात है कि कंपनी ने अश्वेत महिला की मांग को स्वीकार कर लिया है । महिला का कहना था कि आज विश्व में जो कुछ भी अश्वेत लोगों के साथ घटित हो रहा है , उसे व्यक्त कर पाने में या उसका प्रतिनिधित्व कर पाने में रेसिज्म या नस्लभेद शब्द पर्याप्त नहीं है , इसलिए इसकी परिभाषा में बदलाव होना चाहिए । क्या केवल रंग के आधार पर होने वाले भेदभाव से अश्वेतों के साथ होने वाले अन्याय को अभिव्यक्त किया जा सकता है ? उत्तर है नहीं । इस डिक्शनरी की परिभाषा देखें तो पता चलता है कि नस्लवाद एक ऐसा विश्वास है कि मानव गुणों और क्षमता का प्राथमिक निर्धारक नस्ल है और नस्लीय मतभेद एक विशिष्ट नस्ल में एक अंतर्निहित श्रेष्ठता के भावों को पैदा करता है । वास्तव में नस्लवाद की परिभाषा में अन्याय के बहुआयामी पक्षों को जोड़ना शामिल है । कला , साहित्य , शिक्षा , प्रशासन , मौलिक और मानवाधिकार के स्तर पर होने वाले भेदभाव को इसमें शामिल किया जाना चाहिए । किन किन रूपों में एक खास नस्ल के लोगों को उपेक्षित किया जाता है , उन्हें किन बुनियादी सुविधाओं , अधिकारों से वंचित रखने का सुनियोजित प्रयास किया जाता है , इसके संबंध में वैश्विक नस्लीय साक्षरता और जागरूकता बढ़ाने का समय आ चुका है । दुनिया पहले से ही बहुत से मुद्दों पर विभाजित रही है , इस एक और मुद्दे पर वैश्विक विभाजन कहीं से भी विश्व व्यवस्था के स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है। इसलिए दुनिया भर के देशों , सिविल सोसायटी संगठनों को आज इस मुद्दे पर एक होना होगा कि कॉस्मोपॉलिटन फ्रेटरनिटी एक समतामूलक विश्व व्यवस्था के निर्माण के लिए जरूरी है।

नस्लभेद के उन्मूलन पर भारत की सोच :

भारत संयुक्त राष्ट्र संघ का संस्थापक सदस्य देश है। भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ चार्टर पर 26 जून , 1945 को हस्ताक्षर किया था । संयुक्त राष्ट्र के संस्थापक सदस्य के रूप में भारत, संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्यों और सिद्धांतों का पुरजोर समर्थन करता है और चार्टर के उद्देश्यों को लागू करने तथा संयुक्त राष्ट्र के विशिष्ट कार्यक्रमों और एजेंसियों के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में आस्था भारत की विदेश नीति का प्रमुख सिद्धांत है। इसी क्रम में भारत संयुक्त राष्ट्र चार्टर में वर्णित सभी नागरिकों की समानता , उनके सामाजिक , सांस्कृतिक अधिकारों के संरक्षण पर बल देता है। संयुक्त राष्ट्र के चार्टर और भारतीय संविधान ( अनुच्छेद 15 में ) दोनों ही जगह धर्म , नस्ल , जाति , लिंग और जन्मस्थान के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभावों पर प्रतिबंध लगाया गया है । अपनी संवैधानिक प्रतिबद्धता के अनुरूप ही भारत, संयुक्त राष्ट्र के उपनिवेशवाद और रंगभेद के विरूद्ध संघर्ष के अशांत दौर में सबसे आगे रहा । भारत, दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद और नस्लीय भेदभाव के सर्वाधिक मुखर आलोचकों में से था। वस्तुतः भारत संयुक्त राष्ट्र (1946 में) में इस मुद्दे को उठाने वाला पहला देश था और रंगभेद के विरूद्ध आम सभा द्वारा स्थापित उप समिति के गठन में अग्रणी भूमिका निभाई थी। जब 1965 में सभी प्रकार के नस्लीय भेदभाव के उन्मूलन से संबंधित कन्वेंशन पारित किया गया था तब भारत सबसे पहले हस्ताक्षर करने वालों में शामिल था।

चूंकि भारत परंपरागत रूप से तृतीय विश्व के देशों के मुखिया के रूप में अपनी भूमिका निभाता आया है अतः यह आज भी जरूरी है कि भारत संयुक्त राष्ट्र से लेकर अन्य प्रमुख वैश्विक फोरमों , वैश्विक और राष्ट्रीय कानूनों के स्तर पर अश्वेत समुदाय के खिलाफ होने वाले अन्यायों पर आवाज़ उठाएं और वैध और तार्किक ढंग से किसी मुद्दे पर आवाज उठाने के क्रम में उसे अपने अमेरिका और ब्रिटेन जैसे साझेदारों की नाराज़गी का ध्यान रखने की ज्यादा जरूरत नहीं है क्योंकि जब अमेरिका भारत में धार्मिक स्वतंत्रता संबंधी रिपोर्ट में भारत को अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने के आरोप लगाने से नहीं चूकता और अल्पसंख्यक संरक्षण के भारत के किसी भी प्रयास को वो बेमानी करार दे देता है और उस समय वह यह नहीं सोचता कि भारत के साथ उसके संबंधों पर क्या असर पड़ेगा , ठीक उसी तरह अमेरिका या विश्व के किसी भी अन्य देश में नस्लीय अन्याय के खिलाफ सशक्त आवाज उठाना ना केवल भारत की नैतिक जिम्मेदारी है बल्कि एशिया अफ्रीका लैटिन अमेरिका के देशों में अपनी छवि को और मजबूत बनाने की एक जरूरत भी है । इसके साथ ही भारत को वैश्विक नस्लभेद आंदोलन से सीख लेते हुए देश में धर्म- संप्रदाय भेद , क्षेत्र- भेद , जाति- भेद और भेदभाव के सभी रूपों को समाप्त करने के लिए सक्रिय होना चाहिए।

विवेक ओझा (ध्येय IAS)


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