ब्लॉग : संविधान को बनाना होगा सुशासन का वाहक by विवेक ओझा

संविधान किसी देश की आकांक्षाओं , इच्छाओं और भावनाओं का प्रतिनिधि होता है। देश की राजव्यवस्था , शासन और उसके अंग को जन भावनाओं को साकार कराने के काम में लगाता है संविधान । आज संविधान दिवस के अवसर पर भारतीय संविधान के महत्व और उसके आदर्शों और प्रावधानों को मजबूती देने पर विचार करने का दिन है। क्या देश संविधान और उसकी छत्र छाया में निर्मित विधि के शासन के हिसाब से चलाया जा रहा है ? इस पर एक सार्थक बहस करने की जरूरत है। संवैधानिक मान्यताओं और आदर्शों पर कितना काम हो रहा है , इसकी पड़ताल करने पर मिला जुला परिणाम सामने आता है । जब आजादी के बाद भारत में संविधान को मजबूती देने की बात उठनी शुरू हुई , तो कई सकारात्मक बिंदु सामने आए ।

न्यायिक सर्वोच्चता और संसदीय सर्वोच्चता के बीच के निरन्तर जारी द्वंद को दूर करने और शासन के इन दोनों अंगों के मध्य संवैधानिक सर्वोच्चता पर साझा सहमति बनाकर वैधानिक बंधुत्व ( लीगल फ्रेटरनिटी ) विकसित करने के लिए आधारभूत ढांचे ( बेसिक स्ट्रक्चर डॉक्ट्रिन ) को इजाद किया गया। ज्यूडिशियल रिव्यू और न्यायिक सक्रियता जैसी धारणाओं के प्रति शासन के अंगों में सम्मान के भाव को विकसित करने पर बल दिया गया।

सामाजिक आर्थिक न्याय के मार्ग में बाधा उत्पन्न करने वाले कारकों खासकर सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार से निपटने के लिए सूचना के अधिकार के अस्त्र को आगे करते हुए लोकपाल और लोकायुक्त और पब्लिक या सिटिज़न चार्टर को मजबूती देने के उपाय किए गए । यह सच है कि भ्रष्टाचार पर प्रभावी नियंत्रण अभी भी नहीं लगाया जा सका है लेकिन केंद्र और राज्य सरकारें इस प्रश्न पर पहले की तुलना में अधिक संवेदनशील हुई हैं। 2018 में संविधान के संरक्षक सर्वोच्च न्यायालय ने 12 राज्यों से सवाल किया था कि शासन प्रशासन सहित अन्य क्षेत्रों में फैले भ्रष्टाचार से निपटने के लिए अभी तक इन राज्यों ने लोकायुक्त पद का सृजन क्यों नहीं किया ? ये राज्य ऐसा करने से बच क्यों रहे हैं या विलंब क्यों कर रहे हैं। जम्मू कश्मीर, मणिपुर , मेघालय , मिज़ोरम , नागालैंड , त्रिपुरा , पुडुचेरी , तमिलनाडु ,तेलंगाना , अरुणाचल प्रदेश , दिल्ली और पश्चिम बंगाल ने अभी तक लोकायुक्त पद का सृजन नहीं किया है । क्या ये राज्य मानवाधिकारों और मूल अधिकारों के संरक्षण की दिशा में ऐसा करके विलंब नहीं कर रहे हैं। यहां यह कहना जरूरी है कि इन राज्यों को संविधान की प्रस्तावना में वर्णित राजनीतिक , सामाजिक और आर्थिक न्याय के लिए संवेदनशील होकर कार्य करने की जरूरत है।

भारतीय संविधान ने अपने प्रावधानों के जरिए हमेशा अंतरराज्यीय समरसता और सहयोगी संघवाद के स्वप्न को साकार करने की बात की है लेकिन इसके बावजूद आज कई भारतीय राज्यों में बड़े पैमाने पर विरोध , मतभेद , संघर्ष की स्थितियां देखने को मिलती हैं। अंतरराज्यीय नदी जल विवाद , प्रवासी मजदूरों के इंटरस्टेट आवाजाही , नृजातीय समुदायों के संघर्षों से उभरे इंटर स्टेट डिस्प्यूट्स रोजगार व्यवसाय के नाम पर राज्यों के मध्य पनपती संरक्षणवादी नीतियां एक चुनौती के रूप में कहीं ना कहीं विद्यमान हैं और अब जबकि देश में प्रतिस्पर्धी संघवाद को बढ़ावा देने की बात हो रही है तो आवश्यक हो गया है कि राज्यों के मध्य आपसी सौहार्द और संवैधानिक मूल्यों को आगे ले जाने वाले भाव विकसित किए जाएं।

मूल संविधान में भारतीय संविधान ने देश को धर्म निरपेक्ष घोषित किया था जिसे बाद में 42 वें संविधान संशोधन के जरिए पंथनिरपेक्ष करना अधिक उचित समझा गया । कई अवसरों पर केंद्र सरकार और राज्य सरकारों ने पंथ निरपेक्ष मूल्यों के आधार पर कार्य कर सर्व धर्म समभाव को बढ़ावा देने के उदाहरण भी प्रस्तुत किए हैं लेकिन आज भी ऐसे कई उदाहरण हैं जिनसे पता चलता है कि भारत के पंथ निरपेक्ष मूल्यों का उल्लंघन जारी है । विशुद्ध रूप से किसी धर्म या पंथ को बढ़ावा या उसे संरक्षण देने की प्रवृत्ति पर रोक लगाना आवश्यक है , विभिन्न धर्मों के उत्सवों के प्रति समान दृष्टिकोण बनाए रखने के साथ ही संप्रदायिक सौहार्द को बनाए रख पाना संभव होगा । चूंकि एस आर बोम्मई मामले में पंथ निरपेक्षता को भारतीय संविधान का आधारभूत ढांचा घोषित किया गया था , इसलिए भारत के सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों की यह जिम्मेदारी है कि धर्म को राजनीति का उपकरण बनने से रोकने के लिए प्रभावी न्यायिक सक्रियता बरकरार रखे ।

आज भारत पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह भीड़ हत्या , मोब लिंचिग की घटनाएं देखी गई हैं , उससे देश में विधि के शासन पर प्रश्न चिन्ह लगे हैं। कई अवसरों पर यह देखा गया है कि पुलिस शांत खड़ी है और भीड़ और उपद्रवी तत्व न्यायाधीश की भूमिका में आकर ऑन द स्पॉट फैसला सुनाने में निपुण होते जा रहे हैं । यह लोकतंत्र के लिए एक गंभीर स्थिति है , इससे निपटना आवश्यक है क्योंकि विधि के शासन और न्यायिक प्रणाली के प्रति विश्वसनीयता का भाव भी लोगों में तभी विकसित हो सकेगा।

संविधान के आदर्शों और मूल्यों को वास्तविक अर्थों में प्राप्त करने के लिए सबसे अधिक जरूरी है कि कुछ भी करके सिविक वर्च्यूज यानि नागरिक सद्गुणों का विकास किया जाय क्योंकि जनता के सक्रिय और प्रत्यक्ष सहयोग के बिना बड़े बड़े लक्ष्यों की प्राप्ति कर पानी संभव नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के द्वारा प्लास्टिक प्रदूषण ,नदियों की सफाई , दीवाली में पटाखों पर बैन , वायु प्रदूषण नियंत्रण के संबध में दिए गए दिशा निर्देश जब तक पूर्ण संवेदनशीलता के साथ जनता के द्वारा सुने माने नहीं जाएंगे तब तक सुशासन या सुराज एक स्वप्न मात्र बना रहेगा ।

संविधान दिवस के दिन इस बात पर भी चर्चा होनी चाहिए कि वो कौन से प्रभावी तरीके होंगे जिनसे देश दल बदल की घातक राजनीति से बाहर निकल सकेगा। सांसदों और विधायकों की खरीद फरोख्त आज गंभीर समस्या है और यह दीर्घ कालिक रूप में भारतीय लोकतंत्र की जड़ों को कमजोर करेगा । राजनीति दलों में आपराधिक पृष्टभूमि के लोगों की उपस्थिति को दूर करने के लिए दलों और आम जनता दोनों को देश हित में सोचना विचारना जरूरी है । देश में राजनीतिक शुचिता की संस्कृति का विकास आज के समय में अधिक आवश्यक हो गया है। इसलिए बेहतर राजनीतिक संस्कृति के विकास के लिए सभी की भूमिका अनिवार्य हो जाती है । देश के विभिन्न सरकारी संगठनों की भूमिका को अधिक पारदर्शी बनाना भी इस दिशा में आवश्यक है । शक्तियों के दुरुपयोग की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना जरूरी है। लंबे समय से सीबीआई जैसी संस्थाओं की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाए जाते रहे हैं । भले ही हाल के समय में ये सवाल उठने कम हो गए हों लेकिन देश में अनुच्छेद 14 की मूल भावना के हिसाब से काम होने के लिए जांच एजेंसियों की निष्पक्ष और पारदर्शी भूमिका से कोई समझौता नहीं किया जाना चाहिए। ऐसा इसलिए भी आवश्यक है कि यदि आम जनता के मन में गुड गवर्नेंस , सरकार की नीतियों कामकाज के प्रति विश्वसनीयता पर कोई सवालिया निशान नहीं खड़े होने देना है तो पूरे तंत्र को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के तहत कार्य करने के लिए तैयार करने की राह खोजनी पड़ेगी ।

विवेक ओझा (ध्येय IAS)


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