ब्लॉग : मध्य पूर्व और खाड़ी क्षेत्र में क्षेत्रीय स्थिरता की आसान होती राह by विवेक ओझा

कतर ने सभी खाड़ी देशों से ईरान के साथ बातचीत करने , संवाद के लिए अच्छा माहौल बनाने की अपील की है । कतर ने खाड़ी देशों के ईरान से वार्ता के लिए मध्यस्थ की भी भूमिका निभाने का प्रस्ताव कर दिया है। कतर जिसने अभी हाल ही में सबसे ताकतवर खाड़ी देशों के साथ अपने संबंधों को पुनः सहज कर पाने में सफलता पाई है , ने जिस साहस और आत्मविश्वास के साथ खाड़ी देशों और ईरान के संबंधों में सहजता लाने की मंशा को प्रदर्शित किया है , वो कई आयाम लिए हुए है। अमेरिका के नव निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडन ने जबसे यह संकेत दिया है कि ट्रंप प्रशासन के विपरीत वह ईरान के साथ पुनः वार्ता करने की प्रक्रिया से जुड़ने में रुचि रखते हैं , तब से कई देशों को ईरान के संबंध में सकारात्मक बोलने , सोचने का अवसर मिला है । अमेरिका कितने लंबे समय तक ईरान को शत्रु देश के रूप में सूचीबद्ध कर रख सकता है , जब से इस प्रश्न पर पुनर्विचार होना शुरू हुआ है , तब से ईरान भी अपने हितों के संरक्षण के लिए अधिक मुखर रूप में सामने आया है । उसने चीन के साथ अपने गठजोड़ों को एक हथियार के रूप में भी देखा है ।

बीजिंग ने ईरानी अर्थव्यवस्था के प्रमुख क्षेत्रों में प्रत्यक्ष रूप में 400 अरब डॉलर मूल्य के निवेश का वायदा किया है। इसके बदले ईरान द्वारा चीन को 25 साल तक निरंतर अपने यहां उत्पादित कच्चे तेल की आपूर्ति करनी होगी। चीन द्वारा बीआरआई अर्थात बेल्ट एंड रोड इनिशियेटिव नामक अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना के अंतर्गत अन्य देशों के मुकाबले ईरान में सबसे बड़ी राशि के निवेश का प्रस्ताव किया गया है। यह ईरान के कच्चे तेल एवं गैस संबंधी बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए व्यापक निवेश सिद्ध होगा। इसमें कच्चे तेल तथा गैस संबंधी सुविधाओं के निर्माण पर क्रमश: 280 अरब डॉलर एवं 120 अरब डॉलर निवेश का प्रस्ताव है। बीजिंग द्वारा ईरान में अपने पूंजी निवेश की निगरानी के लिए 5000 सुरक्षाकर्मी तैनात करने की भी योजना है। चीन द्वारा होर्मुज जलडमरूमध्य के पास स्थित बंदरगाह वाले शहर जास्क में भी बुनियादी ढांचे का निर्माण किए जाने की बात हुई है। यह बलूचिस्तान के ग्वादार से महज 150 मील दूर है जहां चीन की कंपनी द्वारा बंदरगाह बनाकर उसका संचालन किया जा रहा है। जास्क में चीन अपनी प्राथमिक नौसैन्य उपस्थिति से भी ईरान, पाकिस्तान एवं चीन के बीच सैन्य प्रशिक्षण एवं अभ्यास को बढ़ा सकता है जिससे क्षेत्रीय सुरक्षा परिदृश्य में चीन मज़बूत होगा। चीन और ईरान के बीच 25 वर्षीय सामरिक साझेदारी योजना भी निर्मित हुई है और ईरान ने साफ किया है कि उसे चीन का सामरिक साझेदार बनने की खुशी है।

यूएस की खाड़ी या यूं कहें मिडिल ईस्ट की डिप्लोमेसी में बदलाव के संकेत देखे जा रहे हैं वो भी विशेषकर ईरान के संबंध में। 18 जनवरी को जो बाइडन ने राजनयिक वेंडी शरमन को अमेरिकी डिपार्टमेंट ऑफ स्टेट का दूसरा सबसे बड़े पद डेप्युटी सेक्रेटरी ऑफ स्टेट के लिए मनोनीत किया है । लेकिन इससे भी अहम बात यह है कि वेंडी शरमन 2015 में अमेरिका और ईरान के बीच ईरान के नाभिकीय नीतियों के मुद्दे पर होने वाले वार्ता और ईरान नाभिकीय समझौते के सबसे प्रमुख वार्ताकार में से एक थीं जिन्हें भरोसे के साथ इस काम के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा लगाया गया था।

प्रमुख खाड़ी देशों से कतर के राजनयिक संबंध की पुनर्बहाली :

हाल में इस्लामिक देशों के खाड़ी क्षेत्र में ऐसी घटना घटित हुई जो खाड़ी क्षेत्र की स्थिरता और खाड़ी देशों के वैश्विक और क्षेत्रीय ताकतों से संबंधों को बड़े स्तर पर प्रभावित करने वाली है । हुआ ये कि खाड़ी सहयोग संगठन के सुप्रीम काऊंसिल के 41 वें सत्र की सऊदी अरब में हुई बैठक से ठीक पहले सऊदी अरब ने एक अभूतपूर्व कदम उठाते हुए खाड़ी देश कतर पर लगाए गए राजनीतिक कूटनीतिक और आर्थिक प्रतिबंधों को हटा लिया और कतर के लिए अपने स्थल , समुद्री और एयरस्पेस बॉर्डर को खोलने का निर्णय कर लिया । इसके अलावा सऊदी अरब ने कतर को जीसीसी समिट में भाग लेने के लिए आमंत्रित भी कर दिया । इससे अब संयुक्त अरब अमीरात , बहरीन और इजिप्ट ( मिस्र ) जैसे देशों के मन में भी कतर के प्रति दुर्भावना और बढ़ी खाई भर गई है। चारों देशों ने कतर के साथ अपने संबंधों की पुनर्बहाली का निर्णय लिया है क्योंकि ऐसा करना खाड़ी क्षेत्र के एकीकरण, स्थिरता और क्षेत्रीय सहयोग के लिए अत्यंत जरूरी है।

गौरतलब है कि वर्ष 2017 में सऊदी अरब , संयुक्त अरब अमीरात , बहरीन और मिस्र ने कतर के साथ अपने आर्थिक और कूटनीतिक संबंध खत्म कर लिए थे। तब कतर के ऊपर यह आरोप लगाया गया था कि कतर कुछ आतंकवादी समूहों को हर स्तर पर सहयोग देकर खाड़ी क्षेत्र की सुरक्षा , शांति और स्थिरता को खतरे में डाल रहा है । कतर के ऊपर यह आरोप लगता रहा है कि वह इजिप्ट में अस्थिरता फैलाने वाले आतंकी संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड को समर्थन प्रदान करता है। जिन चारों देशों ने कतर के साथ रिश्ते खत्म किए थे , उन सभी ने समय समय पर कतर पर हमास , अल कायदा और आईएसआईएस जैसे आतंकी संगठनों को समर्थन देने के आरोप लगाए हैं । इन देशों ने कतर के ऊपर जो प्रतिबंध लगाए , उसे हटाने के लिए 13 शर्तें रखीं थीं जिनमें शामिल थे : अल ज़ज़ीरा और अन्य कतर वित्त पोषित न्यूज आउलेट्स को बंद करना , ईरान के साथ अपने कूटनीतिक संबंधों को तोड़ना , कतर में टर्की के सैन्य अड्डे को बंद करना , और अन्य खाड़ी देशों के आंतरिक मामलों में कतर द्वारा हस्तक्षेप नहीं करना ।

कतर के ईरान के निकट संबंध भी सऊदी अरब , यूएई , बहरीन और इजिप्ट को रास नहीं आते । वैसे भी कुछ वर्ष पूर्व ईरान समर्थित हिजबुल्ला नामक आतंकी संगठन पर खाड़ी सहयोग संगठन ने प्रतिबंध लगा दिया था और ईरान के खिलाफ एक और आरोप को मजबूती से क्षेत्रीय राजनीति में प्रयोग में लाया।

सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात को अब अहसास होने लगा है कि अधिक समय तक कतर का आर्थिक और राजनयिक बहिष्कार कतर को टर्की और ईरान के ज्यादा नजदीक ले आकर खड़ा कर देगा और हाल के समय में चीन और ईरान की बढ़ती नजदीकी के घेरे में भी कतर को लेने के प्रयास से खाड़ी क्षेत्र की प्रादेशिक अखंडता और इस्लामिक सोलिडेरिटी को गहरा झटका लगेगा । सऊदी अरब , संयुक्त अरब अमीरात , बहरीन और मिस्र आपस में सहयोगी हैं और इन्हें हाल में यह बात समझ में आ गई है कि इस्लामिक विश्व या अरब विश्व के दो सबसे बड़े प्रतिनिधियों सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के इस्लामिक वर्चस्व को तोड़ने के लिए कई ताकतें लामबंद होनी शुरू हो गई हैं जिसमें मुख्य रूप से ईरान , टर्की और मलेशिया जैसे देश शामिल हैं , ऐसे में खाड़ी देश कतर का इस लामबंदी से जुड़ना खाड़ी क्षेत्र और खासकर सऊदी अरब की प्रतिष्ठा के लिहाज से ठीक नहीं होगा । यही कारण है कि जीसीसी के 41 वें समिट में अल उला उद्घोषणा जारी करते हुए सऊदी अरब , यूएई , बहरीन और मिस्र ने खाड़ी क्षेत्र के एकीकरण , खाड़ी देशों में समन्वय गल्फ , अरब और इस्लामिक एकता के नाम पर चारों देशों ने कतर के साथ अपने संबंधों को सामान्य करने का निर्णय किया, इसके साथ ही अब इन पांचों देशों में राजनयिक और आर्थिक संबंधों की पुनर्बहाली हो गई है । कुवैत और अमेरिका ने इस विवाद के समाधान में मध्यस्थता की भूमिका निभाई है । इसी प्रकार ओमान ने भी कतर से अपने संबंधों को लंबे समय से सामान्य ही बनाए रखा।

भारत के लिए खाड़ी देश हर दृष्टि से महत्वपूर्ण :

संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या प्रभाग और इंडिया स्पेंड की रिपोर्ट को देखें तो पूरी दुनिया में सबसे बड़ी डायसपोरा कम्युनिटी भारतीय प्रवासियों की है । सबसे अधिक प्रवासी भारतीय खाड़ी देशों में रहते हैं। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या प्रभाग और इंडिया स्पेंड की रिपोर्ट के अनुसार कामगार भारतीयों की संख्या 16 से 17 मिलियन के मध्य है । वहीं संयुक्त राष्ट्र वर्ल्ड माइग्रेशन रिपोर्ट , 2018 में बताया गया है कि प्रवासी भारतीय कामगारों की संख्या 15.6 मिलियन है । भारत की कुल डायसपोरा की संख्या देखें तो यह 30 मिलियन के आस पास है । प्रवासी भारतीयों के द्वारा वर्ल्ड बैंक की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार 2018 में 80 बिलियन डॉलर का रैमिटेंस यानी वित्त प्रेषण किया गया है । यूएई में अकेले लगभग 3.5 मिलियन भारतीय कार्यरत हैं , वहीं सऊदी अरब में 2.5 मिलियन , ओमान और कुवैत दोनों में 1.4 मिलियन प्रवासी भारतीय कार्यरत हैं ।

अरब विश्व के साथ अच्छे संबंधों को बढ़ावा देना भारत की विदेश नीति का एक प्रमुख लक्ष्य रहा है लेकिन खाड़ी देशों , मध्य पूर्व अथवा पश्चिम एशिया के इस्लामिक देशों के साथ भारत के संबंधों में समय समय पर उतार चढ़ाव देखे गए हैं। हाल के वर्षों में भारत सरकार ने जहां खाड़ी देशों के साथ मजबूत संबंधों पर जोर दिया वहीं दूसरी तरफ भारत के नागरिकता संशोधन अधिनियम और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर से उपजे विरोध प्रदर्शन , दंगे और मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हितों के प्रश्नों पर कई इस्लामिक देशों सहित खाड़ी देशों में एक असंतोष की भावना भड़काने का प्रयास किया गया जिससे कई कुछ खाड़ी देशों जैसे कुवैत ने इस्लामिक सहयोग संगठन से मांग तक कर दी कि भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय के संरक्षण के मामले को उसे संज्ञान में लेना चाहिए ।

उल्लेखनीय है कि खाड़ी सहयोग परिषद् भारत का सबसे बड़ा क्षेत्रीय व्यापारिक साझेदार रहा है । 2018-19 में दोनों के मध्य 121 बिलियन डॉलर का द्विपक्षीय व्यापार रहा है । इसमें भी संयुक्त अरब अमीरात के साथ 60 बिलियन और सऊदी अरब के साथ 34 बिलियन डॉलर का द्विपक्षीय वार्षिक व्यापार रहा है । भारत अपनी ऊर्जा सुरक्षा के लिए बड़े स्तर पर खाड़ी देशों पर निर्भर है । भारत के कुल क्रूड ऑयल आयात का लगभग 20 प्रतिशत सऊदी अरब से और 10 प्रतिशत ईरान से आता है । इसलिए भारत को एक साथ सऊदी अरब और ईरान से अच्छे संबंधों को बना के रख पाने की चुनौती रही है क्योंकि दोनों देश एक दूसरे के प्रतिद्वंदी हैं। वहीं कतर भारत के लिए एलएनजी प्राप्ति का सबसे बड़ा स्रोत रहा है और कतर राजनीतिक संकट का प्रभाव भारत की ऊर्जा सुरक्षा पर पड़ना स्वाभाविक भी है । इसलिए भारत का यह सदैव दृष्टिकोण और मांग रही है कि खाड़ी क्षेत्र में किसी भी समस्या का राजनीतिक और शांतिपूर्ण समाधान होना चाहिए और खाड़ी देशों के मध्य विश्वास निर्माण बहाली के हर संभव प्रयास किए जाने चाहिए । चूंकि खाड़ी क्षेत्र महाशक्तियों की क्षेत्रीय राजनीति की प्रयोगशाला भी रहा है , इसलिए वहां अलग अलग राष्ट्रों के समूहों की गुटबाजी को भी बढ़ावा मिलता रहा है । इसी क्रम में भारत ने ईरान से क्रूड आयल मंगाने के मुद्दे पर अमेरिका के दबाव को भी झेला और साथ ही पूरी तरह यह भी कोशिश की कि उसे अपनी संप्रभुता से समझौता ना करना पड़े। भारत को ईरान और रूस के साथ व्यापारिक समझौतों के आधार पर ही अमेरिका ने जीएसपी की सूची से बाहर भी निकाल दिया था । यही ईरान और रूस या फिर चाइना के संबंध और प्रभाव खाड़ी देशों में ना बढ़े , अमेरिका इसकी कोशिश करता रहा है ।इसी क्रम में उसके नेतृत्व में अब्राहम एकार्ड को भी अंजाम दिलवाया गया जिसके तहत इजरायल और संयुक्त अरब अमीरात में संबंधों के लिए अभूतपूर्व समझौता किया गया है। इसका स्वागत भारत ने भी किया है । भारत का मानना है कि खाड़ी सहयोग परिषद् के 6 देश अपने चार्टर के अनुरूप सहयोग समन्वय की राह पर चलकर क्षेत्रीय स्थिरता को प्राप्त करें । गौरतलब है कि जीसीसी के चार्टर में क्षेत्रीय समन्वय के प्रयासों पर बल दिया गया है । इसमें शामिल हैं : सदस्य राष्ट्रों में एकता के लिए समन्वय, एकीकरण और घनिष्ठ संबंध स्थापित करना; क्षेत्र के देशों के बीच संबंध, रिश्ते और सहयोग के सभी पहलुओं को मजबूत बनाना; आर्थिक और वित्तीय मामलों; वाणिज्यिक, सीमा शुल्क और परिवहन मामलों; शिक्षा और सांस्कृतिक मामलों;  सामाजिक और स्वास्थ्य मामलों; संचार, सूचना, राजनीतिक, विधायी और प्रशासनिक मामलों में समान व्यवस्था और नियम अपनाना; उद्योग, खनन, कृषि, जल और पशु संसाधनों से संबंधित विज्ञान और प्रौद्योगिकी में प्रगति को बढ़ावा देना और वैज्ञानिक अनुसंधान केंद्र स्थापित करना तथा संयुक्त परियोजनाएं शुरू करना है । खाड़ी सहयोग परिषद की संकल्पना रक्षा योजना परिषद के साथ-साथ क्षेत्रीय साझा बाजार के रूप में की गई थी । इन देशों की भौगोलिक निकटता तथा मुक्त व्यापार और आर्थिक नीतियों को व्यापक रूप से अपनाए जाने से खाड़ी सहयोग परिषद की स्थापना में सहायता मिली ।

पाकिस्तान पर दबाव बनाने के लिए जीसीसी जरूरी :

सऊदी अरब को वर्ष 2019 में फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स की पूर्ण सदस्यता प्रदान की गई है । सऊदी अरब , इज़रायल , अमेरिका भारत के सामरिक साझेदार हैं । इनके सहयोग के जरिए भारत पाकिस्तान के आतंक के वित्त पोषण की प्रक्रिया पर प्रभावी नकेल कस सकता है । सऊदी अरब पहला अरब देश बन गया है जिसे ऐसी सदस्यता मिली है । अमेरिका में आयोजित समूह की वार्षिक बैठक के बाद सऊदी अरब को यह अवसर प्राप्त हुआ है। सऊदी प्रेस एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार, 1989 में समूह की पहली बैठक की 30वीं वर्षगांठ पर वैश्विक धन शोधन रक्षक के रूप में उसे इस टास्क फोर्स में शामिल किया गया है । सऊदी अरब की इस टास्क फोर्स में सदस्यता कई मायनों में दक्षिण एशिया में आतंक के वित्त पोषण को नियंत्रित करने में एक कारगर कदम साबित हो सकती है । चूंकि इस टास्क फोर्स में खाड़ी सहयोग परिषद ( जीसीसी ) के छः सदस्यों के ब्लॉक के अलावा एक ब्लॉक के रूप में यूरोपियन कमीशन भी सदस्य है , इसलिए यह इन सभी सदस्यों के फंडिंग मैकेनिज्म को तार्किक बनाने में मददगार साबित होगा । सऊदी अरब इस टास्क फोर्स के पूर्ण सदस्य के रूप में किसी देश को अनुदान , ऋण देने से पहले सोचेगा कि कहीं इसका इस्तेमाल प्राप्तकर्ता देश आतंकी गतिविधियों को चलाने में तो नहीं करेगा । चूंकि गल्फ कोऑपरेशन काउंसिल एक क्षेत्रीय ब्लॉक के रूप में टास्क फोर्स का सदस्य है तो संयुक्त अरब अमीरात , कुवैत , बहरीन, ओमान और कतर पर भी दबाव पड़ेगा कि वो पाकिस्तान जैसे देश को आर्थिक मदद देने के पहले सुनिश्चित कर लें कि पाकिस्तान ऐसे धन का क्या इस्तेमाल करने वाला है । ऐसे में 1999 में संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में आतंकी गतिविधियों हेतु टेरर फंडिंग और ट्रांसफर को रोकने के लिए किए गए अभिसमय को प्रभावी तरीके से लागू करने की जरूरत है ।

विवेक ओझा (ध्येय IAS)


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