ब्लॉग : ताकि जनता की संप्रभुता का प्रतीक संसद मर्यादित बना रहे by विवेक ओझा

आज (30 जून) को अंतरराष्ट्रीय संसदवाद दिवस है यानी इंटरनेशनल पार्लियामेंटेरिज्म डे। हर साल संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में दुनिया भर के संसदों की मजबूती की कामना के साथ विश्व भर में यह दिवस मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने के पीछे की मंशा यह भी है कि दुनिया भर के देश संसदीय परम्पराओं , मूल्यों के हिसाब से काम करें । कोई भी देश अपनी संसद की गरिमा को धूमिल करने वाला काम न करे और संसद किसी भी देश के लोकतांत्रिक विकास की सर्वश्रेष्ठ प्रयोगशाला बने।

संसदवाद का मतलब यह है कि संसद एक विचार है , एक दर्शन है , एक विचारधारा है और उससे भी ऊपर जन आकांक्षाओं का प्रहरी है ।

भारत की संसद को देखें तो कई खट्टे मीठे अनुभव सामने आते हैं। संसद में महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित न होने देने के लिए विपक्षी दलों के नेता एड़ी चोटी का जोर लगा देते हैं। संसद में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों का चयन न हो , इसके लिए भी अभी तक मजबूत व्यवस्था बनने में कोर कसर रह गई है। संसद में कई अवसरों पर फूहड़ मज़ाक करके सदन का समय नष्ट किया जाता रहा है। विभिन्न सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष के सांसद 2022 के भारत के विकास के बदले 1950 -60 के भारत में क्या हुआ , इसे बोलने बताने में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं। कोई लोहिया के सपनों के भारत की , तो कोई जेपी के भारत की बात करता है । कोई मुखर्जी और सावरकर के सपनों की भारत की बात करता है , तो कोई भगत सिंह के आदर्शों पर चलते की सिफारिश करता है। सबके पास देश के विकास , प्रगति , सुरक्षा के लिए विचारधारा आधारित रास्ते और तरीक़े हैं और इसमें कुछ गलत भी नही है लेकिन आज का भारत जिन गंभीर वास्तविकताओं का सामना कर रहा है , उसके हिसाब से मर्ज की दवा विचारधारा या धर्म विशेष नही हो सकता। सभी राजनीतिक दलों की ये जिम्मेदारी है कि देश प्रगति करे और सुरक्षित बने। इसलिए राजनीतिक दलों में कुछ तो नैतिकता राष्ट्रीय हित के नाम पर होनी ही चाहिए अन्यथा वे असंसदीय मार्ग पर चलेंगे, असंसदीय भाषा का इस्तेमाल करेंगे , संसदीय विशेषाधिकारों का हनन होता रहेगा और संसद प्रतिरोध प्रतिशोध का स्थल बनकर रह जाये।

वैसे आर्दश स्थिति तो तब होती जब देश के बेस्ट माइंड्स , लोककल्याणकारी बौद्धिकता से प्रेरित व्यक्तित्व ही संसद में स्थान पाते। संसद अनन्य सुविधा प्राप्त करने का एक उपकरण मात्र नहीं और इसलिए हर सांसद की जिम्मेदारी गंभीर और संवेदनशील तरीके से तय करने का तंत्र भी बनना चाहिए। सांसदों के परफॉर्मेंस के आधार पर उन्हें सुविधा , रियायत मिलनी चाहिए। अक्सर तमाम सांसद बिना कोई काम किये सांसदों के वेतन को बढ़ाने के लिए बिल लाकर उसे पारित कराने के चक्कर में लगे देखे गयें हैं , ये एक दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि देश बेरोजगारी और निर्धनता का दंश झेले और सांसद अधिक से अधिक सुविधाभोगी बनने के चक्कर में पड़े रहें ।

भारतीय संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने का सवाल भी एक गंभीर सवाल के रूप में बना रहा है हालांकि इस दिशा में प्रगति पिछले 2 लोक सभा चुनावों में देखी गई है। 17वी लोकसभा चुनाव में 78 भारतीय महिलाएं सांसद बनीं । इंदिरा गांधी के बाद देश को निर्मला सीतारमण जी के रूप में महिला वित्त मंत्री मिली। तृणमूल कांग्रेस सांसद नुसरत जहां द्वारा मंगलसूत्र पहनने और सिंदूर लगा कर संसद में अलग ही संदेश देने का प्रयास और साहस भी देश ने संसद में देखा।

Analysing the Relevance of the Rajya Sabha

प्रधानमंत्री मोदी ने संसद में विपक्ष को एक नई कार्य संस्कृति से जुड़कर राष्ट्र निर्माण में सहयोग की अपेक्षा की। गृहमंत्री अमित शाह ने जम्मू कश्मीर पर कड़े तेवर अख़्तियार किए। हैदराबाद से सांसद और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी के शपथग्रहण के दौरान संसद 'जय श्री राम' और 'वंदे मातरम' के नारे से गूंज उठा। भाजपा और उसके सहयोगी दलों के सांसदों ने बंगाल के तृणमूल कांग्रेस सांसदों के शपथग्रहण के दौरान ये नारे लगाए थे। अल्लाह हूं अकबर की गूंज भी सुनाई पड़ी ।

इन सब विविधताओं के बीच भारतीय संसद अपने पथ पर अग्रसर है । भारत की संसद विवधताओं , मत भिन्नताओं का प्रतिनिधित्व करने वाली जीवंत पाठशाला है । संसद में वाद , विवाद और संवाद तीनों को ही स्थान मिलता रहा है । लेकिन कुछ लोगों को संसद व्यर्थ की संस्था लगती है , खासकर तब जब सही मसलों पर तेजी से कानून ना बन पा रहा हो , संसद में अड़ंगेबाजी तेज हो जाए , बिल पास ना हो पाए ।

 

बहुत पहले कार्लायल ने संसद को बातचीत की दुकान कहा था , वहीं गांधी जी ने ब्रिटिश संसद को बांझ और वेश्या तक कह दिया था , क्यूंकि इसमें उन्हें कोई उत्पादकीय शक्ति नजर नहीं आती थी । गांधी जी तब कई मायनों में सही भी थे । जो ब्रिटिश संसद पूरे विश्व में उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद को फैलाने के लिए नीतियां कानून बनाने पर आमादा थी , वो गांधी जी से ऐसी ही उपमा सुनने के लायक थी । गांधी का सर्वोदय आज भारतीय संसद का मूल मंत्र होना चाहिए । चोर , डाकुओं की असली जगह पहले चंबल थी और अब केवल जेल होनी चाहिए , संसद नहीं । ऐसा केवल कहने से काम नहीं चलेगा । आपराधिक पृष्टभूमि वाले उम्मीदवारों पर भारतीय जनता क्यूं रहम कर देती है , समझ नहीं आता । 17वी लोक सभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में गाजीपुर सीट के निर्णय से पार्टी लाइन के परे जाकर लोगों ने कहा कि यह राजनीतिक न्याय नहीं था ।

देश की संसद मानव पूंजी के निर्माण की टकसाल है , युवाओं की आकांक्षाएं पक्ष विपक्ष की कुर्सियों के बीच तैरती हैं । लोक कल्याण और जन सशक्तिकरण बजट की चर्चा की राह देखते हैं । आजकल कश्मीर भी संसद की तरफ आंख लगाए बैठा है । ऐसे में संसद , सांसदों को रचनाधर्मी, नवाचारी होना पड़ेगा । संसद मनोविनोद , हास परिहास , कुर्सियां तोड़ने , आंख मारने के लिए नहीं बनी है , संसद इसलिए है ताकि देश में विधि का शासन हो , महाबली बाहुबली का नहीं । संसद इसलिए है कि वह देश के विकास के अंतिम छोर पर खड़े पिछड़े वर्गों , महिलाओं , बच्चों , दिव्यांगों , ट्रांसजेंडराें, विधवाओं , परित्यक्त महिलाओं , तस्करी और मोब लिंचिंग के शिकार लोगों को उनका वाजिब हक़ दें । यह तो सच है कि देश बहुत बड़ा है , सबको सबकुछ नहीं मिल सकता व्यवस्था से , लेकिन उतनी जरूरी चीजें संसद द्वारा जरूर की जानी चाहिए ताकि देश के आम नागरिक को कानून के शासन में विश्वास रहे ।

विवेक ओझा (ध्येय IAS)


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