ब्लॉग : देश की सांस्कृतिक पहचान उत्तर पूर्व में विद्रोही गुटों से शांति वार्ता की आसान होती राह by विवेक ओझा

लेख जरा लंबा है लेकिन भारत की अखंडता , संप्रभुता से लगाव रखने वालों के लिए जरूरी भी । भारत की आंतरिक सुरक्षा के विषयों पर बात करना राष्ट्रीय सुरक्षा की जरूरतों को संवेदनशील तरीके से दिशा देने जैसा है। कल उत्तर पूर्व में नागा अलगाववाद से जुड़ी एक खबर ने मन को अच्छी अनुभूति के भावों से भरा। हुआ कुछ यूं कि नागालैण्ड के सबसे ख़तरनाक उग्रवादी संगठन नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड ( खपलांग ) के एक गुट एनएससीन - जीपीआरएन ने भारत सरकार के साथ युद्ध विराम की घोषणा कर दी है और साथ ही यह कहा है कि वह भारत सरकार के साथ शांति वार्ता में शामिल होने के लिए तैयार है। अब इस खबर को सुनकर हर उस व्यक्ति को प्रसन्नता होगी जो ये जानता है कि उत्तर पूर्वी भारत में इन संगठनों की हिंसक अलगाववादी गतिविधियों और स्वायत्तता की मांगों की क्या कीमत चुकानी पड़ी है । क्या कोई भारतीय नागरिक नागा विद्रोहियों की भारतीय संघ से बाहर निकलने की मांग को जायज ठहरा सकता है , क्या कोई नागालैंड को पृथक देश ( ग्रेटर नगालिम) के रूप में देखना चाहेगा , जहां भारतीय तिरंगे से भिन्न अंगामी जफू फिजो की आकांक्षाओं का एक पृथक झंडा लहराए। क्या देश के सबसे बड़े कानून भारतीय संविधान जैसा एक पृथक संविधान नागा विद्रोही गुटों द्वारा मांगा जाना शोभा देता है और सबसे बड़ी बात क्या बंदूक के दम पर माओवादी समाजवादी सोच के साथ सरकार पर अपने दबावों के जखीरे खड़े करने की एनएससीएन ( आईएम ) और एनएससीएन (के) जैसे समूहों को अवसर मिलना चाहिए ।

कुछ दिन पूर्व दैनिक जागरण में लिखे एक लेख में मैंने इस बात की चर्चा की थी कि भारत सरकार को उत्तर पूर्वी भारतीय राज्यों के विद्रोही संगठनों जो समझौता करने के मूड में नहीं दिखते , जिनकी भारत सरकार से बात ही शेयर्ड सोवरेनटी के नाम पर शुरू होती है , ऐसे संगठनों के कुछ प्रभावी गुटों की सरकार पहचान करें जो अधिक रेडिकल ना हों और उन्हें शांति वार्ता से जोड़कर मूल नागा संगठनों को आईसोलेट करने का काम किया जाए जिससे उनका मनोबल टूटे और यह प्रसन्नता की बात है कि सरकार इस रणनीति पर काम कर भी रही है जिसके सकारात्मक परिणाम सामने आने लगें हैं।

उत्तर पूर्व के अन्य राज्यों में भी मूल नागा विद्रोही समूहों के गुटों को विश्वास में लेकर उनके कैडरों से आत्मसमर्पण कराने में भारत सरकार और संबंधित राज्य सरकारों ने इस कोरोना वर्ष में बड़ी सफलता पाई है । हाल ही में असम में भी चार बड़े विद्रोही समूहों युनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (इंडिपेंडेंट) , युनाइटेड पीपुल्स रेवोल्यूशनरी फ्रंट (यूपीआरएफ) , दिमसा नेशनल लिबरेशन आर्मी (डीएनएलए) पीपुल्स डेमोक्रेटिक काउंसिल ऑफ कार्बी लोंगरी ( पीडीसीके) के 62 विप्लवकारियों ने असम राज्य सरकार के मुख्यमंत्री के समक्ष गोले बारूद , हथियार के साथ आत्मसमर्पण कर दिया है। असम में उग्रवाद और विप्लवकारी समूहों की गतिविधियां पूर्वोत्तर भारत और साथ ही देश के आंतरिक सुरक्षा के लिए एक गंभीर चुनौती रही है। उग्रवादी संगठनों ने अलगाववाद के आंदोलनों , नृजातीय पहचान और स्वायत्तता और पृथक राज्य या देश की मांगों के साथ भारतीय संघ के खिलाफ संघर्ष करने की रणनीति के साथ काम किया है। इसी क्रम में असम में उल्फा जैसे उग्रवादी संगठनों ने असम में आंतरिक अशांति को बढ़ावा दिया है।

हाल में असम में आत्मसमर्पण करने वालों में उल्फा ( आई ) के भूतपूर्व स्वघोषित डेप्युटी कमांडर इन चीफ दृष्टि राजखोवा भी शामिल है। दृष्टि राजखोवा रॉकेट प्रापेल्ड ग्रेनेड (आरपीजी) में विशेषज्ञ रहा है और असम में हिंसक उग्रवादी गतिविधियों को अंजाम देने में मास्टरमाइंड के रूप में अपनी भूमिका निभा चुका है। उल्फा (आई) के कमांडर इन चीफ परेश बरूआ के बाद दृष्टि राजखोवा इस संगठन का दूसरा सबसे प्रमुख व्यक्ति है। असम में उग्रवादियों के आत्मसमर्पण का सिलसिला जारी है । जनवरी , 2020 में बोडो पीस एकार्ड के तहत नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड के तीन गुटों के 1615 कैडरों ने आत्मसमर्पण कर दिया था ।

जनवरी , 2020 में ही पूर्वोत्तर भारत के 8 उग्रवादी समूहों उल्फा (आई) , एनडीएफबी ( एस), कामतापुर लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन , नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ बंगालीज, राभा नेशनल लिबरेशन फ्रंट, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया ( माओवादी ), नेशनल संथाल लिबरेशन आर्मी और आदिवासी ड्रैगन फाइटर के उग्रवादियों ने सरकार के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था । इस वर्ष कुल 2323 उग्रवादियों ने आत्मसमर्पण किया है । यह असम और उत्तर पूर्व की सुरक्षा के लिहाज से महत्वपूर्ण कदम है। आत्मसमर्पण करने वालों को गृह मंत्रालय की आत्मसमर्पण-सह-पुनर्वास योजना 2018 के तहत मिलने वाले लाभ भी मुहैया कराए जाएंगे।

त्रिपुरा में भी उग्रवादियों का समर्पण :

भारत सरकार, त्रिपुरा और साबिर कुमार देबबर्मा के नेतृत्व में नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (एनएलएफटी-एसडी) के बीच 10 अगस्त, 2019 समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए गए। एनएलएफटी पर 1997 से गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत प्रतिबंध लगा हुआ है, यह संगठन अंतरराष्ट्रीय सीमापार स्थित अपने शिविरों से हिंसा फैलाने जैसी गतिविधियों में शामिल रहा है। एनएलएफटी वर्ष 2005 से 2015 की अवधि के दौरान 317 उग्रवादी घटनाओं को अंजाम देते हुए हिंसक कार्रवाई की, जिसमें 28 सुरक्षा बलों और 62 नागरिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी। एनएलएफटी के साथ 2015 में प्रारंभ हुई शांति वार्ता के बाद से इस संगठन ने 2016 के बाद कोई हिंसक कार्रवाई नहीं की है। एनएलएफटी (एसडी) हिंसा के मार्ग को छोड़ने, मुख्यधारा में शामिल होने और भारत के संविधान का पालन करने के लिए सहमत हो गया है। संगठन ने अपने 88 सदस्यों के हथियार सहित आत्मसमर्पण करने पर भी सहमति जताई है। आत्मसमर्पण करने वाले कैडरों को गृह मंत्रालय की आत्मसमर्पण-सह-पुनर्वास योजना, 2018 के अनुसार आत्मसमर्पण लाभ दिया जाएगा। गृह मंत्रालय द्वारा कार्यान्वित की जा रही योजना "वामपंथी चरमपंथियों की आत्मसमर्पण-सह-पुनर्वास योजना" के तहत प्रत्येक लाभार्थी को 36 महीने की अधिकतम अवधि के लिए 6,000 रुपये मासिक वजीफे के लिए पात्र बनाया गया है ।

नागा समस्या का समाधान कैसे हो -

पिछले सात दशकों से नागा अलगाववाद का मुद्दा भारतीय संघ की संप्रभुता और अखंडता पर एक प्रश्न चिन्ह के रूप में उपस्थित रहा है । केंद्र सरकार ने इससे निपटने के लिए कभी सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम के प्रावधानों को आजमाया तो कभी नागा विद्रोही गुटों एनएससीएन ( आईएम ) और एनएससीएन ( के ) को प्रतिबंधित समूह घोषित किया और कभी प्रतिबंध की समयावधि को बढ़ाया। देश के संविधान ने अपने तरीके से पांचवीं अनुसूची और अनुच्छेद 371 के जरिए नागालैंड की सामाजिक , सांस्कृतिक और प्रशासनिक स्वायत्तता के प्रावधान किए । अनुच्छेद 371ए को संविधान में 13वें संशोधन के बाद 1962 में जोड़ा गया था। ये अनुच्छेद नागालैंड के लिए विशेष प्रावधान करता है। इसके मुताबिक भारतीय संसद बिना नागालैंड की विधानसभा की मंजूरी के नागा धर्म से जुड़ी हुई सामाजिक परंपराओं, पारंपरिक नियमों, कानूनों, नागा परंपराओं द्वारा किए जाने वाले न्यायों और नागाओं की भूमि संबंधी मामलों में कानून नहीं बना सकती है। इसी अनुच्छेद के तहत नागालैंड के तुएनसांग जिले को भी विशेष दर्जा मिला है। नागालैंड सरकार में तुएनसांग जिले के लिए एक अलग मंत्री और 35 सदस्यों वाली स्थानीय काउंसिल भी बनाने का प्रावधान है लेकिन इन सबके बावजूद नागा पृथकतावाद की मांग थमी हो, ऐसा नहीं है ।

भारत विनाशी राज्यों के अविनाशी संघ के रूप में जाना जाता है । भारत और उसके संविधान ने राज्यों की नृजातीय पहचान , स्वायत्तता और संप्रभुता का सम्मान किया है । लेकिन नृजातियता राष्ट्रीयता को चुनौती देने लगे यह भी जायज नहीं है । जम्मू कश्मीर हो या नागालैंड दोनों भारतीय संघ के अभिन्न अंग हैं। ऐसे में साझी संप्रभुता , पृथक संविधान और झंडे की मांग स्वीकार्य नहीं हो सकती । केंद्र सरकार नागालैंड में समावेशी विकास की योजनाओं , अवसंरचनात्मक विकास , सांस्कृतिक स्वायत्तता को सुनिश्चित करने के लिए ऐसे नागा समूहों की पहचान कर सकती है जो अपेक्षाकृत उदार हों और भारतीय संघ के भीतर मिलने वाली स्वायत्तता को सहर्ष स्वीकार करें और उसके समूचे नागालैंड में प्रसार के लिए भूमिका भी निभाएं । नागा गुटों के साथ वर्ष 2015 में जो समझौता हुआ उसमे वर्ष 2017 में एक नया मोड़ तब आया जब सरकार ने इसमें नगा नेशनल पॉलिटिकल ग्रुप्स यानी एनएनपीजी गुटों को भी एक पक्ष के रूप में शामिल कर लिया गया था। भारत सरकार ने जिस तरह से असम में बोडो एकॉर्ड और त्रिपुरा और मिजोरम के बीच के ब्रू जनजाति के विवाद के समाधान के लिए विविध पक्षों को विश्वास में लिया , उसी प्रकार नागालैंड के मामले में भी सरकार को यथासंभव गैर आक्रामक हुए बगैर समस्या के समाधान के बिंदुओं की तलाश करनी चाहिए लेकिन नागा समस्या का समाधान केवल केंद्र सरकार के गुड विल से ही नहीं हो सकता , इसके लिए नागा विद्रोही समूहों को शांति और विकास का मार्ग चुनना होगा क्योंकि भारत सरकार असम , मणिपुर , अरुणाचल प्रदेश के इलाकों को विघटित कर , उनका पुनर्निर्धारण कर पृथक नागालैंड देश के लिए किसी भी कीमत पर नहीं सोच सकती और इसलिए पृथक संविधान और झंडे की बात नहीं मानी जा रही है । ऐसे में नागा विद्रोहियों के पास भारतीय संघ के तहत सीमित स्वायत्तता लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता।

विवेक ओझा (ध्येय IAS)


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