ब्लॉग : कश्मीर विदेशी हस्तक्षेप की प्रयोगशाला नही by विवेक ओझा

हाल ही में सिंगापुर सरकार ने एक ऐसा कानून बनाया है जिसकी जरूरत और प्रावधानों को देखकर कश्मीर के मसले पर पूर्वाग्रही विदेशी हस्तक्षेपों को स्वस्थ तरीके से विनियमित करने की जरूरत समझ में आती है। दरअसल सिंगापुर ने विदेशी हस्तक्षेप विरोधी कार्यवाही विधेयक हाल ही में पारित किया है और इसे अपने राष्ट्रीय हितों के लिए जरूरी बताया गया है । इस कानून के जरिये सिंगापुर सोशल मीडिया सहित हर उस प्लेटफॉर्म को विनियमित करने की मंशा रखता है जो सिंगापुर की अंतरराष्ट्रीय छवि खराब कर रहे हों । बात सिंगापुर की जरूर है पर भारत में कश्मीर मसले पर एक मुद्दा दे जाती है और वो भी ये कि कश्मीर से अधिक विदेशी हस्तक्षेप किस देश ने झेला है । भारत के अभिन्न भाग कश्मीर को विदेशी ताकतों ने राजनीति की प्रयोगशाला समझे रखा है।

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कश्मीर के मुद्दे पर दुनिया भर के देश में अलग अलग वजहों से दिलचस्पी रखते हैं। कुछ देश स्वाभाविक और प्राकृतिक रूप से कश्मीर मसले पर बोलते हैं तो कुछ देशों को विवशता में कश्मीर मसले पर हस्तक्षेप करना पड़ता है। लेकिन कुल मिलाकर यह बात तो तय ही दिखाई देती है कि कश्मीर को तमाम छोटी बड़ी विदेशी शक्तियां अपने निहित स्वार्थों के लिए एक प्रयोगशाला के रूप में इस्तेमाल करने के लिए लालायित रहती हैं। चाहे यूरोपीय संघ के सदस्य देश हों , फिनोस्कैंडिनेवियाई देश हों , आर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोआपरेशन या उसके सदस्य देश हों , मलेशिया , टर्की , चीन या पाकिस्तान हो इन सब मानवाधिकार प्रिय देशों , कानून का सम्मान करने वाले देशों को भारत का लोकतंत्र बहुत कमजोर नज़र आता है। इन देशों से जुड़े कुछ स्वतंत्र थिंक टैंकों की रिपोर्ट पढ़कर लगता कि भारत में बहुसंस्कृतिवाद अपनी अंतिम सांसे गिन रहा है और बहुसंख्यकवाद अपनी अराजकता का जश्न मनाने को सुनियोजित स्तर पर तैयार है।

भारत ने जब से जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करते हुए प्रशासनिक तौर पर इस क्षेत्र का पुनगर्ठन किया है तब से भारत के इस निर्णय के विरोध में वैश्विक ध्रुवीकरण करने को आतुर पाकिस्तान जम्मू कश्मीर के मामले पर भारत को घेरने की पुरजोर कोशिश में है। गुलाम कश्मीर और खासकर गिलगित बाल्टिस्तान क्षेत्र में चुनाव की बात हो, प्रांतीय दर्जा देने की बात हो या फिर वहां पाक प्रधानमंत्री और अन्य प्रभावी लोगों की यात्राएं हों, भारत विरोध में पाकिस्तान का ऐसा करना स्वाभाविक है लेकिन जब जर्मन चांसलर , यूरोपीय संघ के देशों , स्वीडन , फ़िनलैंड और अन्य देशों को भी यही लगे कि कश्मीर में अत्याचार को बढ़ावा मिला है तो इनकी दोहरी मानसिकता पर भी सवाल उठना स्वाभाविक है। जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद-370 को खत्म किए जाने के बाद स्वीडन ने जम्मू-कश्मीर में लागू पाबंदियों और राजनीतिक हिरासतों का विरोध किया है। वहां के विदेश मंत्री एने लिंद ने पाबंदियों को हटाने की अपील की थी।

स्वीडन की विदेश मंत्री ने अपनी संसद में कहा था कि , “हम मानवाधिकार के महत्व को सम्मान देने पर जोर देते हैं, कश्मीर में जो स्थिति है उसने बढ़ने देने से बचना चाहिए और स्थिति के दीर्घकालिक राजनीतिक समाधान के लिए कश्मीर के निवासियों को शामिल करना चाहिए। भारत और पाकिस्तान के बीच संवाद भी अहम है।" 2019 की शुरुआत में जर्मनी की चांसलर एजेंला मार्केल भारत यात्रा पर आई थीं और उस दौरान उन्होंने भी टिप्पणी की थी कि कश्मीर में मौजूदा स्थितियां दीर्घकालिक नहीं हो सकतीं। “मौजूदा पाबंदियों” को हटाने की अपील करते हुए स्वीडन की विदेश मंत्री ने कहा, “स्वीडन और यूरोपीय यूनियन भारत सरकार से अपील करते हैं कि जम्मू और कश्मीर से मौजूदा पाबंदियां हटाई जाएं। यह बेहद अहम है कि मुक्त आवागमन और संचार के अवसर बहाल किए जाएं।

लेकिन यहां हमें स्वीडन की विवशता पर भी निगाह डाल लेनी चाहिए। स्वीडन का बहुसंस्कृतिवाद खुद बिखर रहा है। स्वीडन में कुल अप्रवासियों की आबादी का 52 फीसदी केवल मुस्लिम हैं और 2100 तक स्वीडन में सबसे ज्यादा आबादी मुस्लिमों की होगी। स्वीडन में अगले 45 साल में स्थानीय मूल निवासी अल्पसंख्यक हो जाएंगे। यूरोप के कई देश मुस्लिम शरणार्थियों की भारी भीड़ को नागरिकता देने के कारण मुश्किलों में घिरते नजर आ रहे हैं। स्वीडन में पहले जो प्रवासियों की आबादी फिनलैंड के लोगों की थी, उसे मुस्लिमों ने कब्जे में कर लिया है। इसके बावजूद यहां आकर शरण लेने वालों में कई लोग अपने देश लौट रहे हैं। यहां से तीन सौ से ज़्यादा लोग लड़ने के लिए सीरिया और इराक़ जा चुके हैं।

स्वीडन की विदेश मंत्री मार्गोट वौलस्ट्रॉम ने सऊदी अरब की इस बात के लिए आलोचना की है कि यह उनके देश के अंदरूनी मामलों में भी हस्तक्षेप करने लगा है। सऊदी अरब के इस मिशन में मुस्लिम वर्ल्ड लीग को इसका नेतृत्व सौंपा गया है। यह दुनिया का सबसे बड़ा गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) है जिसके पांच महाद्वीपों में तीस कार्यालय हैं। हाल ही में, कुरान का स्वीडिश अनुवाद 'कोरानेंस बुडस्केप' (द मैसेज ऑफ द कुरान) प्रकाशित किया गया है जिसे रियाद से मिले पैसों से प्रकाशित किया गया है।  

कश्मीर के आंतरिक मामलें में विदेशी हस्तक्षेप की पटकथा जिन कारकों ने लिखी है उनमें शामिल हैं :

आर्गेनाइजेशन आफ इस्लामिक कोआपरेशन की मीटिंग्स और डिक्लेरेशंस में अनुच्छेद 370 को हटाने के निर्णय की इस्लामिक देशों द्वारा आपत्ति से पाकिस्तान को बल मिला है। इसी से उत्साहित पाकिस्तान के विदेश मंत्री ने कश्मीर के मुद्दे को उठाने और इस पर समर्थन हासिल करने के लिए अपनी सक्रियता बढ़ाई है। दूसरा, अमेरिका और यूरोपीय संघ जैसे देशों और क्षेत्रीय संगठनों द्वारा कश्मीर और अन्य क्षेत्रों में अल्पसंख्यक मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिए सर्टिफिकेट जारी करने की प्रवृत्ति भी एकतरफ़ा आयामों वाली रही है । तीसरा, चीन द्वारा गलवन घाटी, फिंगरक्षेत्र और नाकुला क्षेत्र में जिस तरह भारत के विरुद्ध गतिविधियों को अंजाम दिया गया है, उससे भी पाकिस्तान जैसे देश का मनोबल गुलाम कश्मीर क्षेत्र को लेकर बढ़ा हुआ है। जब तक पाकिस्तान के मन में यह विश्वास बना रहेगा कि अनुच्छेद 370 और कश्मीर के अन्य मसलों पर दुनिया के देश उसके साथ हैं और भारत विरोध में उसके सुर में सुर मिलाएंगे, तब तक वह गुलाम कश्मीर में दुस्साहस करना जारी रखेगा।

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चौथा, दुनिया के कई ग्लोबल थिंक टैंक भी लगातार कश्मीर में विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, इंटरनेट की पाबंदियों, मानवाधिकार उल्लंघन पर रिपोर्ट देने के लिए आतुर रहे हैं। ये संगठन यह सिद्ध करने पर भी तुले रहे हैं कि भारत का लोकतंत्र सबसे कमजोर है, क्योंकि ये अपने अल्पसंख्यक समुदाय के साथ भेदभाव करता है। ऐसे ग्लोबल थिंक टैंक कश्मीर के लेह-लद्दाख-कारगिल में विकास की नई सार्थक पहलों, जिनसे स्थानीय जनसंख्या के जीवन में गुणात्मक बदलाव आ रहा है, उसकी रिपोìटग करते नजर नहीं आते। कश्मीर मुद्दे पर भारत की आलोचना करने वाला कोई भी ‘ग्लोबल इंडिपेंडेंट थिंक टैंक’ यह रिपोìटग नहीं करता कि पाकिस्तान भारत में महिलाओं के जरिये हथियारों और जाली मुद्रा की तस्करी कराता है। कश्मीर की स्थानीय जनता खासकर वहां की महिलाओं के मन में सुरक्षा भाव भरने के लिए भारत सरकार, भारतीय सेना ने कश्मीर में ‘राइफल वूमेन’ के रूप में महिला सैन्य बल को वहां तैनात किया है जिसके सार्थक परिणाम नजर आए हैं। वहीं लद्दाख में उच्च शिक्षा को गति देने के लिए केंद्रीय विश्वविद्यालय के गठन को मंजूरी मिल गई है।

पांचवां, जबसे भारत के सत्ताधारी दल ने कश्मीर में गुलाम कश्मीर क्षेत्र के परिसीमन की मांग पर विचार करना शुरू किया है, तब से पाकिस्तान को इस बात का खौफ सता रहा है कि कश्मीर में उसके रेफरेंडम (जनमत संग्रह) कराने के लिए बनाई गई कुत्सित चालों का क्या होगा। उपरोक्त तमाम तथ्यों का आकलन करते हुए पाकिस्तान निरंतर गुलाम कश्मीर में चुनाव और जनमत संग्रह कराने का राग अलापता रहा है। भारत द्वारा पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बेनकाब करने के प्रयासों से भी वह पूरी तरह से बौखलाया हुआ प्रतीत होता है।

अंत में यही कहा जा सकता है कि जो भी विदेशी ताकतें , राष्ट्र , थिंक टैंक कश्मीर में मानवाधिकार उल्लंघन की डिक्रिया जारी करते हैं उन्हें एक बार नैतिकता के आधार पर यह सोच लेना चाहिए कि उन्होंने कश्मीर में पाक आतंकवाद को रोकने के लिए कितने बार सुर लगाए हैं , कितनी बार इस मुद्दे पर यू एन महासभा या सुरक्षा परिषद में कोई प्रस्ताव रखा है या पारित कराया है, कितनी बार इन देशों ने कश्मीर के अलगावादी नेताओं को कश्मीर के पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार ठहराया है । अगर विदेशी शक्तियों को कश्मीर से इतना ही लगाव है तो कश्मीर के विकास के लिए किए गए प्रयासों से जो सकारात्मक बदलाव आ रहे हैं , उन पर कुछ कहते लिखते समय थिंक टैंकों की बौद्धिकता पैरालिसिस का शिकार क्यों हो जाती है। इस बात में कोई शक नही है कि कश्मीर ने पिछले कुछ दशकों में खोया ही खोया है , अब उसे पाने का समय आया है और भारत चीन पाकिस्तान सहित हर उस गठजोड़ को संदेश दे रहा है कि ऐसे गठजोड़ अब कश्मीर की बर्बादी का कारण नहीं बन सकते।

विवेक ओझा (ध्येय IAS)


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