ब्लॉग : क्लाइमेट जस्टिस मांग का वैश्विक मुखिया बनता भारत by विवेक ओझा

जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग की चुनौती को भारत महज एक प्राकृतिक घटना और कुछ आपदाओं का संकुल मात्र नहीं मानता। यही कारण है कि ग्लॉसगो समिट में जारी वार्ता के दौरान भारतीय प्रधानमंत्री ने साफ तौर इस बात का उल्लेख किया कि जलवायु परिवर्तन की चुनौती का सामना करने के लिए विकसित और विकासशील देशों के बीच की वार्ता को भारत वैश्विक जलवायु न्याय के नजरिये से देखता है और भारत तृतीय विश्व के सतत विकास से जुड़े हितों का प्रतिनिधित्व ग्लॉसगो में कर रहा है।

क्लाइमेट जस्टिस का मतलब यह है कि जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों का सामना हर समुदाय , व्यक्ति और देश समान रूप से नहीं कर रहा है। वंचित समुदाय और निर्धन अल्पविकसित देशों पर इसका सबसे घातक असर पड़ रहा है। संयुक्त राष्ट्र की कई रिपोर्टों में बताया जा चुका है कि जलवायु परिवर्तन तीसरी दुनिया के देशों में न केवल आर्थिक क्षति बल्कि सामाजिक सांस्कृतिक तनावों , खाद्यान्न असुरक्षा के चलते अपराधों दंगों , श्रम बल की क्षति , पर्यटन और परंपराओं को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। इस रूप में अब जलवायु परिवर्तन का मुद्दा सामाजिक सांस्कृतिक आर्थिक न्याय का मुद्दा बन चुका है।

जब भी हम न्याय की धारणा की बात करते हैं तो उसका मतलब है कि जिस व्यक्ति या समुदाय का जो हक़ है , वो उसे मिले और ऐसा तब हो पाता है जब समतामूलक वितरण को सुनिश्चित किया जाए। भारत का मानना है कि विकासशील देशों को जलवायु न्याय मिलता तब दिखेगा जब विकसित देश अपने हिस्से की पर्यावरणीय जिम्मेदारी विकासशील देशों पर न थोपें। भारत ने कोप 26 के ग्लॉसगो समिट के साथ ही पूर्व में भी कई अन्य अंतरराष्ट्रीय फोरमों पर साफ तौर कहा है कि " समान किंतु विभेदित ( भिन्न भिन्न) उत्तरदायित्व और संबंधित क्षमता का सिद्धांत जिसे सीबीडीआर प्रिंसिपल भी कहते हैं को अपने वैश्विक जलवायु न्याय के विज़न का अभिन्न हिस्सा मानता है। यह सिद्धांत भारत की विदेश नीति को तीन बातों को वैश्विक पटल पर रखने का साहस देता है। पहला , सामूहिकता की ताकत और वैश्विक जलवायु और पर्यावरणीय चुनौतियों से निपटने में इसका इस्तेमाल। दूसरा , भिन्न भिन्न जिम्मेदारियों को वैधता यानी बात जब ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में कमी की हो या मजबूत जलवायु कार्यवाहियों की हो तो विकसित और विकासशील देशों की जिम्मेदारियां एक समान होना कहीं से भी न्यायपूर्ण नहीं है और इसी दृष्टिकोण के साथ भारत पॉल्यूटर पेज प्रिंसिपल यानि प्रदूषणकर्ता स्वयं भुगतान करे की भी प्रासंगिकता को हर फोरम पर सिद्ध करता नज़र आता है। चीन , अमेरिका , यूरोपीय संघ के देशों सहित विकसित देशों के द्वारा अगर सर्वाधिक उत्सर्जन किया जाता है तो उत्सर्जन कटौती की ज्यादा जिम्मेदारी या उत्तरदायित्व विकासशील देशों को देना कहाँ तक न्यायपूर्ण होगा। तीसरा , जलवायु परिवर्तन से निपटने की एक देश की क्षमता के आधार पर ही उसे पर्यावरणीय उत्तरदायित्व मिले। क्या जलवायु परिवर्तन से निपटने की किरिबाती , मालदीव , केन्या की क्षमता की तुलना कहीं से भी अमेरिका , फ्रांस , जर्मनी से करना कहीं से भी ठीक होगा। क्या इन देशों के पास अर्ली सुनामी वार्निंग सिस्टम की टेक्नोलॉजी है , क्या ऐसी टेक्नोलॉजी को वहन करने की वित्तीय हैसियत है इन देशों के पास । अगर नहीं , तो क्या जबरदस्ती अल्प विकसित , लघु द्वीपीय देशों , विकासशील देशों को कठोर जलवायु दायित्वों को थोप देना ठीक है।

क्लाइमेट जस्टिस के मुद्दे को भारत ने अपने जलवायु परिवर्तन नियंत्रण लक्ष्यों को साथ जोड़ते हुए भारत ने पहली बार ग्लॉसगो समिट में अपने पर्यावरणीय प्रतिबद्धताओं का एक सटीक , तार्किक और राष्ट्रीय हितों के अनुरूप फ्रेमवर्क विकसित देशों के सामने पेश कर दिया है । भारतीय प्रधानमंत्री ने कोप 26 जलवायु शिखर सम्मेलन को संबोधित करते हुए जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के लिए 'पंचामृत' यानि पांच अमृत तत्वों के बारे में बात की। व्यापक अर्थों में यह धारणा विकासशील देशों के पर्यावरणीय नेतृत्वकर्ता भारत के ग्लोबल क्लाइमेट जस्टिस के विज़न का भी संदेश है । एशिया की एक बड़ी उभरती हुई बाजार अर्थव्यवस्था भारत जलवायु परिवर्तन प्रबंधन के मुद्दे को कैसे देखता है , इसका सार पंचामृत की धारणा में स्पष्ट किया गया है। भारतीय प्रधानमंत्री मोदी द्वारा लाइफस्टाइल फॉर इन्वॉयरमेंट की धारणा भी दी गई जो धारणीय उपभोग प्रणाली के विकास के आग्रह से जुड़ी हुई है। वहीं 'पंचामृत' का पहला बिंदु यह है कि भारत वर्ष 2030 तक अपनी गैर जीवाश्म ऊर्जा क्षमता को 500 गीगावाट तक पहुंचाएगा। दूसरा , भारत, 2030 तक अपनी 50 प्रतिशत ऊर्जा आवश्यतायें नवीकरणीय ऊर्जा से पूरी करेगा। तीसरा,  भारत अब से लेकर 2030 तक के कुल प्रोजेक्टेड कार्बन एमिशन में एक बिलियन टन की कमी करेगा। चौथा, 2030 तक भारत अपनी अर्थव्यवस्था की कार्बन इंटेन्सिटी को 45 प्रतिशत से भी कम करेगा और पांचवां और सबसे महत्त्वपूर्ण , वर्ष 2070 तक भारत नेट जीरो का लक्ष्य हासिल करेगा । एक तरफ जहां अमेरिका और यूरोपीय संघ 2050 तक और चीन 2060 तक नेट जीरो का लक्ष्य हासिल करने का लक्ष्य तय कर चुके हैं , ऐसे में भारत द्वारा अपनी क्षमता और अपनी भावी ऊर्जा आवश्यकताओं का आंकलन कर 2070 तक कार्बन न्यूट्रल देश बनने का लक्ष्य उसके यथार्थवादी सोच और निर्णय को दर्शाता है।

भारत ने जलवायु न्याय को एक बड़ा आंदोलन का रूप देने के लिए हाल के समय में कई महत्वपूर्ण पहलों को अंजाम दिया है। पहला , भारत ने इंटरनेशनल सोलर अलायंस को अब विकासशील देशों के साथ साथ विकसित देशों को भी जोड़ते हुए नवीकरणीय ऊर्जा के विकास को एक सामूहिक जरूरत बना दिया है। हाल के समय में इज़रायल , जर्मनी , डेनमार्क , ग्रीस जैसे देश भी भारत के वैश्विक सौर ऊर्जा विकास के विज़न से सहमत होकर जुड़े हैं। आईएसए को संयुक्त राष्ट्र का पर्यवेक्षक सदस्य का दर्जा दिलाने का भी प्रस्ताव हाल में भारत कर चुका है।

World's first underwater climate strike calls for ocean protection ...

दूसरा , भारत ग्लोबल क्लाइमेट जस्टिस के विज़न के तहत ही लघु द्वीपीय देशों को हर संभव मदद देने और उन्हें सशक्त बनाने की दिशा में काम कर रहा है। यहां फोरम फॉर इंडिया पैसिफिक आइलैंड्स कोऑपरेशन ( फिपिक) संगठन का उल्लेख करना ठीक रहेगा जिसका गठन खुद भारत द्वारा किया गया है। प्रशांत महासागर क्षेत्र में सागरीय अथवा नौगमन की स्वतंत्रता या दूसरे शब्दों में कहें तो समुद्री व्यापारिक मार्गों की स्वतंत्रता , समुद्री डकैती से सुरक्षा, ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन से द्वीपों के अस्तित्व पर बढ़ता खतरा , मत्स्य और अन्य खनिज संसाधनों की होड़, प्लास्टिक प्रदूषण , तेल रिसाव से समुद्री जैवविविधता का क्षरण , प्रवाल भित्ति से बने द्वीपों पर बढ़ रहे खतरों से निपटने के दृष्टिकोण से फिपिक की महत्वपूर्ण भूमिका है । इसका गठन भारत के नेतृत्व में प्रशांत महासागर के द्वीपीय देशों के साथ संबंधों को मजबूती देने के लिए नवंबर , 2014 में किया गया था । 2014 में जब इस संगठन को लांच किया गया तो भारत ने इन देशों को कई परियोजनाओं में मदद के लिए प्रस्ताव किया। इसमें सबसे प्रमुख प्रस्ताव था की जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन के लिए और स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए एक मिलियन डॉलर की राशि वाले विशेष कोष का गठन किया जाए और भारत में इन देशों के लिए एक व्यापार कार्यालय खोला जाए। दक्षिण पश्चिम प्रशांत देश वानुअतु पूर्व में चक्रवात पाम से जूझने के दौरान भारत सरकार द्वारा 2.5 लाख डॉलर की नकद सहायता पा चुका है। वहीं नौरू ने बढ़ते हुए समुद्री जल स्तर से निपटने के लिए समुद्री दीवार के निर्माण में दी गई भारतीय सहायता की कई मंचों पर प्रशंसा की है।

ग्लॉसगो समिट में भारत ने जलवायु परिवर्तन को अपनी नीतियों के केंद्र में रखने और जलवायु अनकूलन नीतियों को स्कूलों के पाठ्यक्रम में शामिल किये जाने कि सिफारिश भी कि ताकि अगली पीढ़ी इन समस्याओं के प्रति जागरूक हो। एडाप्टेशन और मिटिगेशन स्ट्रेटजी को जब तक तर्कसंगत नहीं बनाया जाता , जब तक ग्रीन प्रौद्योगिकी और हरित वित्त का हस्तांतरण विकासशील देशों को खुले मन से नहीं किया जाता और जब तक विकसित और विकासशील देशों में गैर जीवाश्म ईंधनों के प्रयोग के प्रति लगाव नही बढ़ता और देशों की जनता और समुदाय एक बेहतर संतुलित समावेशी और धारणीय उपभोग संस्कृति का विकास करने के लिए दुनिया आगे नही आती तब तक जलवायु परिवर्तन जनित अन्यायों का सामना करते रहना पड़ेगा।

विवेक ओझा (ध्येय IAS)


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