ब्लॉग : डीप सी माइनिंग से बचाना होगा समंदर की सेहत by विवेक ओझा

हर स्तर पर बढ़ती उपभोक्तावादी संस्कृति के बीच अगर हमें यह सुनने को मिले कि गूगल , बीएमडब्ल्यू, सैमसंग एसडीआई और वोल्वो ने डबल्यूडब्ल्यूएफ ( वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर ) के साथ मिलकर गहरे समुद्री तलहटी में संसाधनों के खनन पर अस्थायी प्रतिबंध लगानें का आवाहन किया है तो लगता है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों में कुछ तो पर्यावरणीय संवेदनशीलता बची है। वैसे भी आईयूसीएन वैश्विक कंपनियों से एनवायरनमेंटल सोशल रिस्पांसिबिलिटी यानी पर्यावरणीय सामाजिक उत्तरदायित्व निभाने की अपेक्षा करता है । बहुराष्ट्रीय कंपनियों को वैश्विक आर्थिक समृद्धि का इंजन माना जाता है और अगर उनकी नीतियों ,कार्यक्रमों , गतिविधियों में सतत विकास को तरजीह मिलने लगे तो बड़ा सुधार संभव हो सकता है ।

गहरे समुद्री तलहटी में खनन कुछ सीमा तक तो ठीक हो सकता है लेकिन अगर उसका अंधाधुंध दोहन करने की देशों की मानसिकता बन जाए तो यह महासागरीय जैव विविधता , सतत विकास , समुद्री पारितंत्र के साथ खिलवाड़ जैसा हो जाएगा । हम सब जानते हैं कि सी बेड में महत्वपूर्ण संसाधन हैं जिसका धारणीय ढंग से दोहन बहुत जरूरी हो गया है। डब्ल्यू डब्ल्यू एफ ने हाल ही में एक बयान जारी कर कहा है कि उपरोक्त कंपनियों ने यह प्रतिबद्धता दिखाई है कि वे समुद्री तलहटी से कोई खनिज संसाधन नहीं प्राप्त करेंगे , अपनी आपूर्ति श्रृंखलाओं से ऐसे खनिज संसाधन को बाहर करेंगे जो गहरे समुद्री खनन से प्राप्त की गईं हों और साथ ही ये कंपनियां डीप सीबेड माइनिंग गतिविधियों का किसी भी तरह वित्त पोषण नहीं करेंगे ।

डब्ल्यूडब्ल्यूएफ का इन कंपनियों के साथ ऐसा समझौता निश्चित रूप से एक अत्यंत सराहनीय कदम है। इन कंपनियों का कहना है कि जब तक समुचित वैकल्पिक उपाय नहीं खोज लिए जाते और जब तक महासागरीय चुनौतियों को बेहतर तरीके से समझ नहीं लिया जाता तब तक गहरे समुद्री खनन पर अस्थाई प्रतिबंध लगाए जाएं । डीप सी माइनिंग के जरिए कोबाल्ट , कॉपर , निकेल , मैगनीज का निष्कर्षण किया जाता है जिसका इस्तेमाल आमतौर पर कंपनियां विभिन्न बैटरियों को बनाने में करती हैं। दक्षिण कोरिया के सैमसंग एसडीआई का इसी संदर्भ में कहना है कि वह पहला बैटरी निर्माता है जिसने डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के इस पहल में सहभागिता दर्ज की है।

भारत का डीप सी ओशेन मिशन :

पॉलिमेटेलिक नोड्यूल जिसपर तमाम राष्ट्रों की निगाह रहती है उसमें मैग्नीशियम, तांबा, निकल, कोबाल्ट, मोलिब्डेनम, लोहा, सीसा, कैडमियम, वैनेडियम होते हैं। मध्य हिंद महासागर बेसिन (CIOB) में 4000 मीटर से 6000 मीटर तक पानी की गहराई पर समुद्र में पड़ी इन गांठों का दोहन करने के लिए भारत ने भी डीप ओशेन कार्यक्रम चलाया है। पॉलिमेटेलिक नोड्यूल कार्यक्रम में चार घटक हैं जिसकी चर्चा नीचे की गयी है:

  1. सर्वेक्षण और अन्वेषण
  2. पर्यावरणीय प्रभाव आकलन
  3. प्रौद्योगिकी विकास (खनन)
  4. धातुकर्म (तत्व का निष्कर्षण)

इस कार्यक्रम के तहत समुद्री संसाधनों के अन्वेषण निष्कर्षण के लिए लिए इंटरनेशनल सी बेड अथॉरिटी द्वारा भारत को मध्य हिंद महासागर बेसिन (सीआईओबी) में 75,000 वर्ग किलोमीटर की साइट आवंटित की गई है। ये लोहे, मैंगनीज, निकल और कोबाल्ट युक्त समुद्र तल पर बिखरे हुए चट्टान हैं। "यह अनुमान लगाया गया है कि उस बड़े रिजर्व की वसूली का 10% अगले 100 वर्षों तक भारत की ऊर्जा आवश्यकता को पूरा कर सकता है। यह अनुमान लगाया गया है कि सेंट्रल हिंद महासागर में समुद्र के तल पर 380 मिलियन मीट्रिक टन पॉलिमेटेलिक नोड्यूल उपलब्ध हैं। " भारत का विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र 2.2 मिलियन वर्ग किलोमीटर से अधिक फैला हुआ है और गहरे समुद्र में, "अनपढ़ और अप्रयुक्त" है। इसके अतिरिक्त सेंट्रल पैसिफिक ओशेन के क्षेत्र जिसे क्लेरियन क्लिपरटान जोन कहा जाता है , वहां भी पॉलीमेटालिक नोड्यूल पाए जाते हैं।

भले ही डीप सी माइनिंग राष्ट्रों के आर्थिक समृद्धि का आधार माना जाए , भले ही सागरीय अर्थव्यवस्था के दोहन के नाम पर राष्ट्र आगे बढ़ते रहें लेकिन समंदर की सेहत का ध्यान रखना सभी देशों की सामूहिक जिम्मेदारी है।

विवेक ओझा (ध्येय IAS)


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