ब्लॉग : कोविड वैक्सीन , शरणार्थी मानवाधिकार और जॉर्डन और भारत की राहें by विवेक ओझा

हम जिस विश्व में रहते हैं वो एक अन्योन्यश्रित विश्व व्यवस्था को धारण किए हुए है । कहने का मतलब है कि दुनिया के भिन्न भिन्न देश एक दूसरे के ऊपर तमाम मामलों पर निर्भर हैं । यह निर्भरता ही राष्ट्रों को साझे सरोकारों , मूल्यों , मानवतावादी सहायता के लिए आधार प्रदान करती है। एक राष्ट्र अपने राष्ट्रीय हितों के ऊपर उठकर भी अन्य राष्ट्र और उनके लोगों के लिए बेहतरी के भाव प्रदर्शित करता है। ऐसा ही कुछ हाल ही में पश्चिम एशियाई देश जॉर्डन के संदर्भ में देखा गया है। संयुक्त राष्ट्र के शरणार्थी मामलों के सबसे बड़े संगठन यूएनएचसीआर ने बताया है कि जॉर्डन दुनिया के उन कुछ एक देशों में पहला देश बन गया है जिसने अपने यहां शरणार्थियों को भी कोविड वैक्सीन देना शुरू किया है । जॉर्डन स्थित इरबिद वैक्सीनेशन क्लीनिक में ईराकी शरणार्थी को कोविड वैक्सीन लगाने के साथ ही मानवतावादी सहायता के इतिहास में एक नए पाठ की शुरुआत हो गई। इराकी दंपत्ति के लिए वैक्सीन लगवाने का क्षण एक भावुक पल में बदल गया जब इराकी महिला ने कहा कि मैं आशा करती हूं कि जिंदगी अब अधिक सुकून भरी हो पाएगी और मैं अपने बच्चे को खुद को पहले सैनिटाइज किए बगैर चूम सकूंगी। इराक की ये दंपत्ति 2006 से जॉर्डन में शरणार्थी का जीवन गुजर बसर कर रहे हैं। एक ऐसे समय में जब दुनिया में शरणार्थीयों को आंतरिक सुरक्षा की चुनौती के लिए खतरे के रूप में निरूपित किया गया । यह कहा गया कि शरणार्थी पार राष्ट्रीय संगठित अपराधों को बढ़ावा देने वाले हो सकते हैं , आंतरिक अशांति का कारण बन सकते हैं फिर भी शरणार्थियों की स्थिति का मानवीय आंकलन कर उन्हें मदद दिया जाना एक प्रशंसनीय कार्य है । जॉर्डन ने पब्लिक हेल्थ रेस्पॉन्स के प्रत्येक आयाम में शरणार्थियों को शामिल कर अपने नेशनल वैक्सीनेशन कैंपेन का उन्हें हिस्सा बनाया । उसके इस अभूतपूर्व कार्य के आधार पर यूएनएचसीआर ने दुनिया के अन्य देशों से अपील की है कि वे जॉर्डन की तरह मानक स्थापित करें । ग़ौरतलब है कि यूएनएचसीआर अपने कोवैक्स आवंटन सिद्धांत और कोवैक्स फैसिलिटी के तहत दुनिया भर के देशों से अपील कर रहा है कि वे शरणार्थियों , विस्थापितों , आंतरिक रूप से विस्थापितों ( आईडीपी ) और राज्यविहीन लोगों (स्टेटलेस पॉपुलेशन ) का अपने नेशनल वैक्सीनेशन कैंपेन में समतामूलक समावेशन करे। कोवैक्स फैसिलिटी एक वैश्विक फैसिलिटी है जिसका जोर इस बात पर है कि दुनिया के अल्प और मध्यम आय वाले देशों में सरकारें और कोविड वैक्सीन विनिर्माता आपसी सहयोग के ज़रिए सर्वाधिक जरूरतमंद लोगों तक वैक्सीन आपूर्ति सुनिश्चित करें। यहां यह उल्लेखनीय है कि शरणार्थी , आंतरिक रूप से विस्थापित और राज्यविहीन लोग अकल्पनीय विपत्तियों का सामना इस दौर में कर रहे हैं और दुनिया इनका साथ नहीं देगी तो इनसे दुनिया के हित में काम करने की अपेक्षा भी कैसे रख पाएगी। यूएनएचसीआर का मानना है कि इन सबके लिए 455 मिलियन डॉलर के वित्तीय राशि की जरूरत है।

वहीं अगर बात भारत में रहने वाले शरणार्थियों की किया जाए तो अलग ही भारतीय दृष्टिकोण सामने आता है। यूएनएचसीआर के मुताबिक, भारत में म्यांमार , अफ़ग़ानिस्तान और सोमालिया जैसे कई अन्य देशों के 244,094 शरणार्थी रहते हैं। इनमें से 203,235 शरणार्थी श्रीलंका और तिब्बत से हैं। भारत सरकार के गृह मंत्रालय के मुताबिक़ रोहिंग्या शरणार्थियों की संख्या भारत में 40 हजार के आस पास है। भारत शरणार्थियों की सुरक्षा के मुद्दे को लेकर किसी अंतर्राष्ट्रीय या क्षेत्रीय कानून से बंधा नहीं है। भारत ने संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी अभिसमय , 1951 जिसे जेनेवा कन्वेंशन भी कहते हैं , पर ना तो हस्ताक्षर किया है , ना ही अनुसमर्थन । दक्षिण एशिया अथवा भारतीय उपमहाद्वीप में भी शरणार्थी सुरक्षा या अधिकार को लेकर कोई क्षेत्रीय विधिक रूपरेखा का अभाव है । इसलिए भारत किसी भी प्रकार के शरणार्थी सुरक्षा के अनिक्षुक दायित्व से बच जाता है । इस मामले में केंद्र सरकार को पता है कि किसे सुरक्षा देनी है और किसे अपनी ही असुरक्षा का कारक बताकर राष्ट्रीय सुरक्षा को प्राथमिकता देते हुए ही चलना है। यहां एक सवाल ये भी उठता है कि क्या भारत में 2.5 लाख शरणार्थीयों को कोविड महामारी के मद्देनजर मदद करनी चाहिए या नहीं ? क्या भारत को अपने यहां रहने वाले शरणार्थीयों को जॉर्डन की भांति अपने नेशनल वैक्सीनेशन कैंपेन का हिस्सा बनाया जाना चाहिए या नहीं ? भारत अगर सीएए या नागरिकता संशोधन कानून के जरिए पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से 31 दिसंबर 2014 तक धार्मिक उत्पीड़न के चलते भारत आने वाले हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, ईसाई और पारसी समुदाय के लोगों को भारतीय नागरिकता देने पर मानवतावादी दृष्टिकोण से विचार कर सकता है तो क्या यह वाजिब नहीं है कि वह अपने मानवतावादी धर्म के आधार पर इस महामारी के दौर में शरणार्थियों को भी स्वास्थ्य सुविधा मुहैय्या कराएं। सीमित स्तर पर ही सही कुछ उपाय ऐसे वर्गों के लिए कर दक्षिण एशिया में भारत नए मानक स्थापित कर सकता है । पारंपरिक रूप से देखें तो भारत का दृष्टिकोण यह रहा है कि वह जेनेरिक दवाओं और वैक्सीन के निर्माण में राष्ट्रों से गठजोड़ कर इसकी वैश्विक आपूर्ति को सुनिश्चित करने में अपना योगदान निभाएं और वैश्विक संस्थाएं और संयुक्त राष्ट्र इसे शरणार्थियों के हित में प्रयोग में लाए । भारत कोविड काल में फिलिस्तीन में रहने वाले नागरिकों को मदद देने के लिए खेप भेजना भारत में फिलिस्तीनी शरणार्थियों को राष्ट्रीय टीकाकरण का हिस्सा बनाए जाने से कहीं अधिक बेहतर कदम मानता है । श्रीलंका और म्यांमार को बड़े पैमाने पर हाइड्रोक्लोरोक्वीन और अन्य औषधियां भेज सकता है , पर बात जब इन देशों के भारत में रहने वाले शरणार्थियों जैसे म्यांमार के रोहिंग्या लोगों को वैक्सीन सहायता की आती है तो भारत अपने राष्ट्रीय आंतरिक सुरक्षा के साथ ही भारी आर्थिक दायित्वों का हवाला देकर मानवतावादी होने के बावजूद भी निष्ठुर होने को विवश हो जाता है।

कोविड-19 वैक्सीन बनाने के प्रयासों में राष्ट्रों के मध्य आई तेजी के साथ जेनरिक वैक्सीन और दवाओं की उपलब्धता का प्रश्न भी महत्वपूर्ण हो गया है। एक ऐसे समय में जब विभिन्न राष्ट्रों के नागरिक आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं तो जेनरिक वैक्सीन की आपूर्ति जरूरी हो जाती है। सवाल उठता है कि भारत जेनरिक वैक्सीन की दिशा में क्या सोचता है और उसकी इस दिशा में प्रतिबद्धता कहां तक है? यहां यह विचारणीय है कि भारत वर्ष 2017 में इंटरनेशनल वैक्सीन इंस्टीट्यूट का सदस्य बना था। कई बड़ी बीमारियों के उपचार के लिए सस्ते दर पर वैक्सीन विकसित करने का काम यह संस्थान बखूबी करता है। इस संस्थान में सदस्य बनने और बने रहने के लिए किसी देश को हर साल इसमें पचास लाख डॉलर का वित्तीय योगदान करना होता है। भारत भी इसी शर्त के साथ इसका सदस्य बना हुआ है। यह भारत की वैश्विक स्वास्थ्य संरक्षण की धारणा को दर्शाता है।

वैक्सीन रिसर्च और विकास के लिए दक्षिण कोरिया स्थित इस संस्थान की पहल का भारत समर्थन करता है। इसके लिए इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च और इंटरनेशनल वैक्सीन इंस्टीट्यूट के बीच एमओयू पर हस्ताक्षर किया गया था। गौरतलब है कि तब चिकित्सा क्षेत्र के विशेषज्ञों ने कहा था कि यह साझेदारी वैक्सीन विकास की दिशा में अनुसंधान गतिविधियों और प्रशिक्षण कार्यक्रमों के सार्थक गठजोड़ को बढ़ावा देगा और इससे विश्व के निर्धन और दुर्बल देशों की वैक्सीन तक पहुंच में सुधार कर स्वास्थ्य परिणामों में सुधार के इस संस्थान के लक्ष्य को प्राप्त करने में आसानी होगी और यह विकसित और विकासशील दोनों ही देशों को वैश्विक स्वास्थ्य अवसंरचना के प्रति सचेत और सामर्थ्यवान बनाएगा। इससे वैश्विक स्तर पर वैक्सीन विकास की दिशा में क्षमता निर्माण को मजबूती देने में बल मिलेगा जिसकी आज दुनिया भर के देशों को बहुत जरूरत है। भारत के वैक्सीन इंडस्ट्री, प्रतिरक्षण कार्यक्रमों और लोक स्वास्थ्य नीतियों के लिहाज से इंटरनेशनल वैक्सीन इंस्टीट्यूट से गठजोड़ आवश्यक भी था और भारत ने इस आवश्यकता की पहचान भी सही समय पर की। ईबोला और जीका वायरसों के प्रकोप के दौर में प्रभावी वैक्सीन का विकास वैसे भी एक अपरिहार्य जरूरत बन गई थी जिस पर कोरोना वायरस ने और पुख्ता मोहर लगा दिया।

भारत ने तय किया है कि वह अगले पांच वर्षों में ग्लोबल वैक्सीन मिशन में डेढ करोड डॉलर का योगदान करेगा। ग्लोबल एलायंस फॉर वैक्सीन्स एंड इम्यूनाइजेशंस (गावी) का कहना है कि भारत अकेला ऐसा देश है जो प्राप्तकर्ता की जगह अब दानकर्ता हो गया है। इस प्लेटफॉर्म पर भारत सबसे बड़ा वैक्सीन विनिर्माता देश बन चुका है और गावी वैक्सीन के 60 प्रतिशत से अधिक का विनिर्माण अकेले भारत करता है। इस ग्लोबल वैक्सीन एलायंस का लक्ष्य है कि अगले पांच वर्षों में 80 लाख लोगों के जीवन को सुरक्षित करना है। इस दिशा में भारत का उसके साथ गठजोड़ लक्ष्य प्राप्ति में काफी सहायता दे सकता है। भारत में कोरोना वायरस से निपटने के लिए स्वदेशी वैक्सीन का ट्रायल चल रहा है।

मानव सभ्यता के आधुनिक और समसामयिक रूप को प्राप्त करने के बाद से दुनिया की कई चीजों को संपूर्ण मानवता की साझा धरोहर के रूप में माना गया है। बाह्य अंतरिक्ष, अंटार्कटिका और आर्कटिक को इसका बडा उदाहरण समझा जा सकता है। इसी तरह वैश्विक स्वास्थ्य भी मानवता की साझा धरोहर के रूप में होना चाहिए, ऐसा भारत का मानना रहा है। भारत ने दुनिया को योग दिया और योग पर अपना एकाधिकार कभी प्रदर्शित नहीं किया। कोरोना वायरस जनित समस्याओं के दौर में वैश्विक स्वास्थ्य को साझा धरोहर के रूप में विकसित करने का समय आ गया है ।

विवेक ओझा (ध्येय IAS)


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