ब्लॉग : बलूचिस्तान में ईस्ट इंडिया कंपनी जैसा विकसित होता चीनी अवतार by विवेक ओझा

हाल ही में प्रसिद्ध लेखक फ्रांसेस्का मरीनों ने बलूचिस्तान पर एक नई किताब लिखी है। इस किताब का शीर्षक है - बलूचिस्तान : ब्रूज्ड बैटर्ड एंड ब्लडीड। इस किताब में उन्होंने कहा है कि बलूचिस्तान चीनी उपनिवेशवाद और नव उपनिवेशवाद जैसी स्थिति का सामना कर रहा है । चीन के प्रोजेक्ट चीन पाकिस्तान इकोनोमिक कॉरिडोर ( सिपेक) को इस किताब में बलूचिस्तान के लिए ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन जैसा बताया गया है । इसका मतलब है कि आर्थिक और व्यापारिक मकसद का हवाला देकर शुरू किया गया चीन पाकिस्तान इकोनोमिक कॉरिडोर धीरे धीरे ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह इस क्षेत्र में राजनीतिक नियंत्रण स्थापित करने की दिशा में काम करेगा जिससे अंततः बलूचिस्तान के लोग नव उपनिवेशवाद के जाल में फंसते चले जाएंगे । ग्वादर बंदरगाह और सीपेक से जुड़े संयंत्रों , अवसंरचनाओं की सुरक्षा के लिए लगभग 15 हजार सैनिकों की तैनाती इस क्षेत्र में की गई है जिसकी मुख्य उद्देश्य चीनी निवेशकों , निवेश , इंजीनियरों को स्थानीय लोगों से सुरक्षा प्रदान करना है। बलूचिस्तान के स्थानीय नागरिकों को इस प्रोजेक्ट में काम पर लगाने के बजाए पाकिस्तान के अन्य प्रांतों से लोगों को बुलाकर चीन पाकिस्तान इकोनोमिक कॉरिडोर के निर्माण कार्य में लगाया गया है। इससे बलोच युवाओं के हित प्रभावित हुए हैं। बलोच लोग इस प्रोजेक्ट को चीन के एक मिलिट्री प्रोजेक्ट के रूप में देखते हैं । इस प्रोजेक्ट के सामने बाधा के रूप में आने वाले शिया समुदाय के जातीय संहार से चीन पाकिस्तान पिछे नहीं हटे हैं। बहुत से सामरिक विश्लेषकों का मानना है कि जिस प्रकार रूस पूर्वी यूरोप में कालिंनग्राद को अपने सामरिक राजनीतिक हितों और महत्वपूर्ण अड्डे के रूप में बनाए रखे है , ठीक उसी प्रकार चीन ग्वादर और बलूचिस्तान में अपने सैन्य , नौसैन्य अड्डे बनाकर अपने सामरिक राजनीतिक हितों की पूर्ति पाकिस्तान के साथ मिलकर करना चाहता है । दक्षिण एशिया में दोनों देशों के भू राजनीतिक और सामरिक हित साझे हैं। दोनों देश एक दूसरे को नेचुरल पार्टनर और स्ट्रेटेजिक पार्टनर का भी दर्जा दे चुके हैं । इसलिए पाकिस्तान आज ग्वादर और उसके तटीय क्षेत्रों को चीनी कालिनग्राद में बदलने के लिए प्रयासरत है। इस क्षेत्र में मिलिट्री कैंटोनमेंट , मिलिट्री बेस का संकेंद्रन बढ़ता जा रहा है और जीवानी और सोनमियानी जैसे क्षेत्रों में नए अड्डे बनाने का प्रयास चल रहा है। चीन को पाकिस्तान का पूर्ण सहयोग मिलना बलूचिस्तान के लिए कई प्रकार की अस्थिरता और चिंता का भी कारण बनता जा रहा है।

पाकिस्तान बलूचिस्तान संबंध की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:

बलूचिस्तान के आज के ज्वलंत मुद्दे को समझने के लिए संक्षेप में इसके इतिहास के बारे में जानना जरूरी है । 1947 से पहले बलूचिस्तान ब्रिटेन का एक प्रोटेक्टरेट यानि संरक्षित राज्य था। बलूचिस्तान पर कलात के खान का शासन था । गौरतलब है कि बलूचिस्तान (कलात, खारान, लॉस बुला, मकरान) ऐसी रियासत थी जिस पर ब्रिटिश साम्राज्य का सीधा तौर पर शासन नहीं था । इन रियासतों को ये अधिकार दिया गया कि ये भारत और पाकिस्तान दोनों में से किसी भी देश के साथ विलय कर सकती हैं या फिर स्वयं को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर सकते है। यहीं से समस्या की शुरूआत होती है ।

मकरान, लास बेला और ख़रान का जिन्ना के दबाव में पाकिस्तान में विलय कर लिया गया था लेकिन कलात के खान मीर अहमद ख़ान ने ख़ुद के स्वतंत्र शासन की घोषणा 11 अगस्त 1947 को कर दिया और अपनी आजादी भी घोषित कर दी । इसके तीन दिन बाद ही पाकिस्तान खुद एक स्वतंत्र और संप्रभु देश बन गया लेकिन मार्च 1948 को पाकिस्तानी सेना ने कलात पर आक्रमण कर उसपर अवैध कब्जा कर लिया और खान ऑफ कलात मीर अहमद यार खान को जेल में डाल दिया गया । बलोच लोगों के मूल अधिकारों , मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन शुरू हुआ। पिछले सात दशक से बलूचिस्तान पर पाकिस्तान का सैन्य कब्जा बरकरार है । उस पर पाकिस्तान का राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रभुत्व है और वह पाकिस्तान के द्वारा आर्थिक शोषण का शिकार रहा है । 1948 के बाद से ही बलोच नेशनल आर्मी ने पाकिस्तान के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष शुरू किया। जेल में बंद कलात के खान के भाई प्रिंस अब्दुल करीम ने बलोच अधिकारों के लिए विद्रोह किया और उन्हें भी कारावास का दंड मिला।

मुहम्मद इकबाल के अखिल इस्लामवाद ( पैन इस्लामिज्म) , चौधरी रहमत अली का पाकिस्तान शब्द गढ़ना, जिन्ना के द्वि राष्ट्रीय सिद्धांत को एक कदम और आगे ले जाते हुए 1955 में पाकिस्तान के तीसरे प्रधानमंत्री मुहम्मद अली बोगरा ने वन यूनिट स्कीम ऑफ पाकिस्तान की आधिकारिक घोषणा 22 नवंबर , 1954 को की । वन यूनिट सिस्टम का विचार पाकिस्तान के तत्कालीन गवर्नर जनरल मलिक ग़ुलाम ने दिया था। इसी के साथ ही पाकिस्तान की नेशनल असेंबली ने 1955 में एक विधेयक पारित कर समूचे पश्चिमी पाकिस्तान के एक एकल प्रांत में विलय की मंजूरी दी और इसे 14 अक्टूबर , 1955 को क्रियान्वित भी कर दिया गया । 1954 में बोगरा ने 1954 में वन यूनिट सिस्टम की तारीफ़ करते हुए कहा था " अब कोई बंगाली , पंजाबी, सिंधी, पठान , बलोच , बहवालपुरी और खैरपुरी नहीं होंगे , होगा तो केवल अखंड पाकिस्तान । उसके इस विचार को अयूब खान ने भी समर्थन प्रदान किया । अक्टूबर 1957 में बलूच नेताओं ने पाकिस्तानी राष्ट्रपति इस्कन्दर मिर्ज़ा से मुलाकात कर कलात को वन यूनिट से बाहर रखने की मांग की। लेकिन अयूब खान ने ऐसा करने से मना कर दिया और इसके बाद वहां विद्रोह शुरू हो गया। 6 अक्टूबर 1958 को अयूब खान ने पाकिस्तानी आर्मी को बलूचिस्तान में भेज कलात के खान और उनके सहयोगियों को गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद से बलोच लोगों के दमन की दास्तां काफी दुखद रही। पाकिस्तान विरोधी बलोच लोगों को जेलों में भरा गया , उन्हें हेलीकाप्टर से बड़े गहरे खड्डों में गिरा दिया गया , महिलाओं के साथ पाशविक आचरण किए गए , भाषा ,संस्कृति को रौद दिया गया और एक सहिष्णु, पंथनिरपेक्ष, समावेशी मानसिकता वाले बलोच क्षेत्र के सोशल फेब्रिक में सुन्नी कट्टरपंथ को स्थापित करने की पुरजोर कोशिश की गई । वर्ष 2006 में बलोच जनजातीय नेता अकबर खान बुगती की नृशंस हत्या कर दी गई जिसके चलते बलूचिस्तान में भीषण विरोध प्रदर्शन हुए ।

भारत की बलूचिस्तान में रुचि का कारण

वर्तमान में चीन पाकिस्तान इकनॉमिक कॉरीडोर स्कीम के तहत ग्वादर बंदरगाह के विकास का काम जारी है । ग्वादर बंदरगाह बलूचिस्तान के तटीय क्षेत्र में स्थित है । पाकिस्तान ने 1958 में इसे ओमान से खरीदा था । और अब चीन पाकिस्तान इस क्षेत्र में डीप सी पोर्ट विकसित करने में लगे हैं । बलूचिस्तान प्राकृतिक गैस, तेल और खनिज संसाधन की दृष्टि से अति समृद्ध प्रदेश है । यहां कोयला , तांबा और स्वर्ण के भी समृद्ध भंडार हैं , इसी को ध्यान में रखकर सीपेक को विकसित किया जा रहा है । सीपेक जम्मू कश्मीर क्षेत्र के गिलगित बाल्टिस्तान अथवा पाक अधिकृत कश्मीर क्षेत्र से गुजरेगा , ऐसे में यह भारत की प्रादेशिक अखंडता और संप्रभुता को प्रभावित करता है । दिल्ली के लाल किले से बलोच लोगों के आत्म निर्धारण के अधिकार , उनकी स्वायत्तता और आजादी का जिक्र कर भारतीय प्रधानमंत्री ने बलूचिस्तान को इसी लिए नैतिक और कूटनीतिक समर्थन दिया । इसका प्रत्यक्ष लाभ भले ही ना हो लेकिन ग्वादर क्षेत्र में बलोच लोगों ने सिपेक के निर्माण में लगे चीनी इंजीनियरों पर हमले किए हैं , झड़प की कई वारदातें सामने आई हैं । बलोच लोगों ने खुले तौर पर आरोप लगाया है कि चीन पाकिस्तान इकनॉमिक कॉरिडोर को अबाधित रूप से जारी रखने के लिए बलोच शियाओं का जातीय संहार किया जा रहा है , ऐसे में वैश्विक स्तर पर यह मानवाधिकार उल्लंघन का मामला बनता है जिसे वैश्विक मंचों पर उठा कर भारत पाकिस्तान की अनैतिकता का पर्दाफाश कर सकता है । चूंकि बलोच लोग पाकिस्तानी सेना और सरकार के सबसे बड़े दुश्मन है । नाभिकीय शक्ति संपन्न पाकिस्तान पर दबाव डालने के लिए भी बलोच फैक्टर कारगर साबित हो सकता है । इसके अलावा ट्रांस्नेशनल इस्लामिक नेटवर्क्स से निपटने के लिए बलूचिस्तान , गिलगित बाल्टिस्तान और सिंध के आत्म निर्धारण के अधिकार के समर्थन की नीति अपनाकर भारत ऐसे देशों को अपने पक्ष में लामबंद कर सकता है । गौरतलब है कि पाकिस्तान सरकार ने गिलगित-बाल्टिस्तान क्षेत्र की कानूनी स्थिति की समीक्षा के लिये 2018 में एक समिति का गठन किया था । भारत इस क्षेत्र को जम्मू-कश्मीर का हिस्सा मानता है। गिलगित-बाल्टिस्तान क्षेत्र को पाकिस्तान अपने पांचवें प्रांत के रूप में घोषित करने की योजना बना रहा है, जिसका भारत जोरदार विरोध कर रहा है। इसे उत्तरी क्षेत्र के रूप में भी जाना जाता है।

बलूचिस्तान समूचे दक्षिण पश्चिम पाकिस्तान को निर्मित करने वाला भू क्षेत्र है जिसकी सीमा पश्चिम में अफगानिस्तान और ईरान से लगती है और इसके दक्षिण में अरब सागर स्थित है । यह पूरे पाकिस्तान का लगभग आधा भू क्षेत्र है । तालिबान नेटवर्क से निपटने के लिए , स्वर्णिम त्रिभुज जैसे नारकोटिक्स बेल्ट से निपटने के लिए बलूचिस्तान , ईरान और अफगानिस्तान की तिकड़ी एक कारगर उपकरण साबित हो सकती है । चूंकि ईरान में शियाओं की बड़ी आबादी निवास करती है , और बलोच क्षेत्र में भी शियाओं को सुन्नी कट्टरता से बचाने के लिए भारत ईरान और अफगानिस्तान गठजोड़ जरूरी है। इस गठजोड़ से चाहबहार और तापी गैस पाइपलाइन जैसे प्रोजेक्ट्स को मजबूती मिलने में मदद मिलेगी ।

विवेक ओझा (ध्येय IAS)


ध्येय IAS के अन्य ब्लॉग