ब्लॉग : 9/11 आंतकी हमलों की 20वीं वर्षगांठ के बीच तालिबान by विवेक ओझा

आज 9/11 आतंकी घटना की 20वीं वर्षगांठ है। आज का दिन अमेरिका इसलिए याद रखता है कि पहली बार किसी आतंकी संगठन ने उसकी संप्रभुता को चुनौती दी थी और फिर जिसे नेस्तनाबूद करने के लिए अमेरिका ने अपनी पूरी सैन्य , सामरिक और कूटनीतिक साहस और ऊर्जा झोंक दी थी। अब जब अमेरिका ने पिछले महीने अफ़ग़ानिस्तान में अपने सैन्य मिशन को ख़त्म कर दिया है तब से इस निर्णय के संभावित परिणामों पर दुनिया के हर महकमें में चर्चा जारी है। इसी कड़ी में हाल ही में अमेरिका के डिफेंस सेक्रेटरी लॉयड ऑस्टिन ने कहा है कि अब अमेरिकी सैनिकों की वापसी और अफगानिस्तान में तालिबान की ताजपोशी के बाद से इस बात की संभावना काफी बढ़ गई है कि अल कायदा आतंकी संगठन एक बार फिर से अफ़ग़ान भूक्षेत्रों पर अपनी मजबूत पकड़ बना लेगा और उसी मानसकिता और सक्रियता से काम करना शुरू कर देगा जैसा कि उसने आज से 20 साल पहले अमेरिका जैसे देशों के ख़िलाफ़ किया था। तालिबान ने अपनी अंतरिम सरकार के गठन की घोषणा के बाद अपनी सरकार और उससे जुड़े राजनीतिक पदों के लोगों के लिए वैधता की तलाश करनी शुरू कर दी है। हाल ही में तालिबानी सरकार में शामिल हक्कानी नेताओं को अमेरिका की तरफ से ब्लैकलिस्ट किए जाने पर तालिबान ने आपत्ति जताई है। तालिबान के प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद ने इस संबंध में कहा है कि, जिन नेताओं को हमने सरकार में जगह दी है उन्हें ब्लैकलिस्ट कर अमेरिका दोहा समझौते का उल्लंघन कर रहा है। तालिबान की मांग है कि, दोहा समझौते के दौरान मौजूद इस्लामिक अमीरात नेताओं को अब तक ब्लैकलिस्ट से अमेरिका को हटा देना चाहिए था लेकिन अमेरिका ऐसा ना कर उकसाने का काम कर रहा है। वहीं अमेरिका के व्हाइट हाउस प्रेस सेक्रेटरी ने हाल ही साफ कर दिया है कि अमेरिका को तालिबान सरकार को मान्यता देने की कोई जल्दी नही है , वह अपने सामरिक हितों के आधार पर ही निर्णय लेगा।

धार्मिक आतंकवाद बढ़ने का खतरा :

तालिबान की अफ़ग़ानिस्तान में ताजपोशी से विश्व पर जो सबसे बड़ा खतरा मंडरा रहा है वह है धर्म प्रेरित या धार्मिक आतंकवाद बढ़ने का।

वैसे भी समकालीन विश्व में आतंकवाद का सर्वाधिक लोकप्रिय रूप धर्म प्रेरित आतंकवाद ही है। इसके समर्थक आतंकी हिंसा को धार्मिक आदेश या कर्तव्य के रूप में देखते है। यहां धर्म इनके द्वारा किए गए हिंसक घटनाओं को वैचारिक स्तर पर वैधता देने का कार्य करता है।  धार्मिक कट्टरता,  रूढ़िवादिता और चरमपंथी विचारों को बढ़ावा देते हुए जेहाद ( तथाकथित पवित्र धार्मिक युद्ध ) के नाम पर आतंकी गतिविधियों को उचित ठहराया जाना धार्मिक आतंकवाद है । इसके तहत इस्लाम खतरे में हैं और उसके शुद्धिकरण की आवश्यकता है , जैसे विचार देकर इस्लामिक साम्राज्य की स्थापना और उसकी प्रतिष्ठा स्थापित करने पर आतंकी समूहों द्वारा जोर दिया जाता है। इसके साथ ही इस्लामोफोबिया जैसे धारणा को मजबूती देने की कोशिश की जाती है। अल कायदा , लश्कर ए तैयबा, बोको हराम , अल शबाब , आईएसआईएस जैसे आतंकवादी संगठन धार्मिक आतंकवाद को इन्हीं मान्यताओं के आधार पर बढ़ावा देते हैं। मोरक्को , अल्जीरिया और फिलीपींस जैसे देशों में इसी आधार इस्लामिक गौरव की पुनर्बहाली के नाम पर सलाफी जेहाद को बढ़ावा दिया जाता है । यहां इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि नाइजीरिया , सोमालिया , अल्जीरिया , मोरक्को , यमन , लेबनान जैसे देशों में सक्रिय आतंकी संगठन कल को तालिबान के तर्ज पर सत्ता पर काबिज़ होने का प्रयास कर सकते हैं जिससे इन देशों में भी इस्लामिक अमीरात बना कर इस्लाम का गौरव बढ़ाया जाए। तालिबान की ताजपोशी से इस बात की भी संभावना बढ़ गई है कि आतंकी गतिविधियों के लिए अब आतंकी संगठन भूमि पर कब्जा करने के प्रयासों से पीछे नही हटेंगे। जिस तरह यमन के हूती विद्रोहियों ने राजधानी साना समेत कई भागों पर कब्जा कर यमन सरकार समेत सऊदी अरब का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया था उसी प्रकार इस्लामिक स्टेट ने ईराक और सीरिया के महत्वपूर्ण इलाकों पर कब्जा किया है । तालिबान नेटवर्क और आईएसआईएस खोरासान ने अफ़ग़ानिस्तान के हिस्सों को कब्जे में लेकर दुनिया के तमाम आतंकी संगठनों को यह संदेश दे दिया कि वे भी सत्ता पर काबिज़ हो सकते हैं।

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानी ...

तालिबान की अफगानिस्तान में ताजपोशी के बाद एक बार फिर से खैबर पख्तूनख्वा , वज़ीरिस्तान , स्वात घाटी जैसे क्षेत्र आतंकी गतिविधियों की चपेट में आ जायेंगे और जिस तरह पाकिस्तान इस समय तालिबान का गुणगान करते नही थक रहा है उससे भी इस बात का संकेत मिलता है कि तालिबान और पाकिस्तान का गठजोड़ भारत , बलोचिस्तान , सिंध के लिए बड़ा खतरा साबित हो सकता है। अब जब तालिबान अफ़ग़ानिस्तान में एक राजनीतिक सच्चाई बन ही चुका है तो भारत समेत दुनिया भर के देशों के पास ऐसी स्थिति में काम करने के कौन कौन से विकल्प हैं , इसको जानने में विश्व समुदाय की दिलचस्पी है। सबसे पहली बात तो ये आती है कि एक विकल्प तो यह है कि तालिबान को विविध देश राजनीतिक कूटनीतिक मान्यता प्रदान करें लेकिन यह विकल्प वही देश अपना सकते हैं जिनकी सोच या तो तालिबान से मेल खाती है या फिर वो किसी देश को दबाव में डालने के लिए तालिबान से सामरिक आर्थिक गठजोड़ प्रदर्शित करना चाहते हैं । यहां स्पष्ट है कि चीन , पाकिस्तान और टर्की इसी सोच के साथ तालिबान के साथ हैं। रूस अमेरिका विरोध और साथ ही अपनी क्षेत्रीय सुरक्षा के नाम पर तालिबान शासन के प्रति उदार दिख रहा है , वहीं ब्रिटेन जैसे देशों ने भी कह दिया है कि जरूरत पड़ी तो तालिबान के साथ मिलकर काम कर सकते हैं। यहां ब्रिटेन के इस दृष्टिकोण का परीक्षण करें तो पता चलता है कि यूरोपीय संघ से निकलने के बाद और कोविड का घातक प्रभाव झेलने के बाद ब्रिटेन अफ़ग़ान शरणार्थियों का बोझ नहीं झेलना चाहता। साथ ही उसके ऊपर मध्य पूर्व , खाड़ी क्षेत्र , पश्चिम और मध्य एशिया से व्यापार और ऊर्जा संसाधनों की आपूर्ति को सुरक्षित कर लेने का भी दबाव है।

तालिबान की संरचना और उसकी कार्यप्रणाली दक्षिण एशिया सहित एशिया के कई हिस्सों को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती आई है और अब और बड़े स्तर पर प्रभावित कर सकती है। तालिबान के दो धड़े हैं , एक अफगानी तालिबान जो पश्तून या पश्तो हैं और दूसरा पाकिस्तानी तालिबान । तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान यानि टीटीपी पाकिस्तान में सबसे बड़ा और सबसे घातक हिंसक तालिबानी संगठन है । 2007 में इसे बैतुल्लाह महसूद ने बनाया था । यह पाकिस्तान की सभी तालिबानी समूहों का अंब्रेला संगठन है । दोनों में मुख्य अंतर यह है कि एक तरफ जहां अफगान तालिबान अमेरिका और नाटो  के नेतृत्व वाले फौजों से अफगानिस्तान में निपटने पर ज्यादा ध्यान देता है वहीं टीटीपी पाकिस्तानी सुरक्षा बलों से संघर्ष करने पर जोर देता है । टीटीपी दक्षिणी वजीरिस्तान में स्थित है जिसके तीन मुख्य लक्ष्य हैं - पाकिस्तान में शरिया कानून को लागू करना , एक एकीकृत फ्रंट तैयार करना जो अफगानिस्तान में अमेरिकी नेतृत्व वाले नाटो फौजों का प्रतिकार कर सके और पाकिस्तानी सुरक्षा बलों के खिलाफ एक सुरक्षात्मक जेहाद को संपन्न करना । इसका अंतिम उद्देश्य पाकिस्तानी सरकार को उखाड़ फेक कर पाकिस्तान में इस्लामी खलीफा साम्राज्य की स्थापना करना है । वर्ष 2014 से आंतरिक टूट फूट और पाकिस्तान के आंतकवाद निरोधक अभियानों ने टीटीपी को कमजोर किया है । 2018 में टीटीपी के सबसे बड़े नेता मौलाना फजलुल्ला की मौत के बाद इस समूह के भविष्य पर खतरा मंडराने लगा । अमेरिका द्वारा आतंकवाद निरोध के लिये यहां जारी की गई नयी राष्ट्रीय रणनीति में पाकिस्तान से संचालित दो आतंकवादी संगठनों लश्कर-ए-तय्यबा और तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) के अतिरिक्त बोको हराम की पहचान अमेरिका के लिये संभावित खतरे के तौर पर की गई है। अमेरिका द्वारा आतंकवाद निरोध के लिये राष्ट्रीय रणनीति में कहा गया है कि आईएसआईएस और अल कायदा के अलावा कई अन्य कट्टरपंथी इस्लामी आतंकवादी संगठन स्थानीय रूप से केन्द्रित विद्रोहियों या आतंकवादी अभियानों को बढ़ावा देने के लिये काम कर रहे हैं, जबकि वे अमेरिकी नागरिकों और विदेश में उसके हितों के लिये संभावित खतरा बने हुए हैं। 2018 में  जारी अमेरिका की आतंकवाद निरोध की नई राष्ट्रीय रणनीति में कहा गया है कि इन संगठनों के अलावा बोको हराम, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान और लश्कर-ए-तय्यबा स्थानीय सरकारों को कमजोर करने तथा हमले करने के लिये राजनीतिक एवं आतंकवादी हथकंडा अपना रहे हैं।’’ रणनीति के अनुसार सीमित संसाधन या राजनीतिक कारणों के चलते ये संगठन अमेरिकी सरजमीं या अमेरिकी हितों के खिलाफ हमले की जगह संभवत: क्षेत्रीय लक्ष्यों को प्राथमिकता देंगे। 2019 में पाकिस्तान की कानून प्रवर्तन एजेंसियों ने आतंकी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई के तहत पंजाब प्रांत में  इस्लामिक स्टेट (आईएसआईएस), लश्कर-ए-झांगवी (एलईजे) और तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) से जुड़े 21 आतंकवादियों को गिरफ्तार किया है।

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानी ...

हक्कानी नेटवर्क तालिबान और अल कायदा से जुड़ा हुआ है और अफगानिस्तान की शांति और स्थिरता में इसे सबसे बड़े ख़तरे के रूप में देखा जाता है । इसका पाकिस्तानी आईएसआई से लिंक है । अवैध व्यवसायों के जरिए इसने भारी मात्रा में पूंजी जमा कर रखा है । यह संगठन भी वजीरिस्तान में है और 30 वर्षों से अधिक समय से एक लड़ाका समूह के रूप में सक्रिय है । यह आत्मघाती बम विस्फोटों में निपुण है । काबुल और उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान के हाई प्रोफाइल लोगों की हत्याओं के लिए जिम्मेदार रहा है । काबुल के दूतावास पर हमलों में भी इसकी भूमिका रही है । इसने अफगान नेताओं और अमेरिकी सैनिकों की भी हत्याएं की हैं । यह सब जलालुद्दीन हक्कानी के नेतृत्व में होता आया है । अब इसके पुत्र सिराजुद्दीन , बदरुद्दीन और नसीरुद्दीन हक्कानी और भाई इब्राहिम ने हक्कानी नेटवर्क को संभाला । इसके ओसामा बिन लादेन के साथ भी संबंध रहे । हक्कानी नेटवर्क को पाकिस्तान से काफी हद तक समर्थन मिला हुआ है जिससे वो अफगानिस्तान में अपने हिंसक अभियान चलाता आया है । हक्कानी नेटवर्क का भी उद्देश्य जेहाद की भावना के आधार पर शरिया कानून से शासित अफगान राष्ट्र का निर्माण है और इस आधार पर एक राष्ट्रवादी अफगान सरकार के निर्माण का समर्थन करता है । वर्तमान समय में अफगानिस्तान में आईएसआईएस खोरासन जैसे आतंकी संगठन भी सक्रिय हैं । खोरासान ऐसा क्षेत्र है जिसमें अफगानिस्तान , पाकिस्तान और मध्य एशिया के क्षेत्र शामिल हैं । इसका भी उद्देश्य अफगानिस्तान में इस्लामिक साम्राज्य की स्थापना है । इन ट्रांस्नेशनल इस्लामिक आतंकी संगठनों की कार्यप्रणाली और उद्देश्य देखकर लगता है कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान के चाहे बिना अफगानिस्तान का राजनीतिक भविष्य प्रशस्त नहीं हो सकता ।

तालिबान आज जिस तरीके की राजनीतिक कार्यसंस्कृति को अपना रहा है , जिस तरह से ये कह रहा है कि अफ़ग़ान महिलाएं बच्चों को जन्म देने के लिए हैं न कि अंतरिम सरकार में कैबिनेट मिनिस्टर बनने के लिए , उससे ईरान सहित अफगानिस्तान के अन्य पड़ोसी देशों में इस बात की चिंता बनी हुई है तालिबान समावेशी सहभागितामूलक राजनीतिक व्यवस्था का निर्माण कैसे करेगा। ईरान सहित अफ़ग़ानिस्तान के 5 अन्य पड़ोसी देशों - चीन , ताजिकिस्तान , तुर्कमेनिस्तान, उज़्बेकिस्तान और पाकिस्तान के विदेश मंत्रियों ने कुछ रोज पहले ही वर्चुअल मीटिंग करते हुए तालिबान के राजकाज के तरीकों , साझे हितों , क्षेत्रीय सुरक्षा पर भी बात की है । ईरान इस बात से तनाव में है कि तालिबान अफ़ग़ानिस्तान के शियाओं के साथ कैसा बर्ताव करेगा क्योंकि ईरान में करीब 4 मिलियन अफ़ग़ान शरणार्थी रहते हैं और ईरान एक बड़े रिफ्यूजी क्राइसिस में पुनः फंस सकता है। इस प्रकार सभी देशों की तालिबान को लेकर कुछ न कुछ सुरक्षा आशंकाए हैं जिनके समाधान के लिए देश आंतरिक स्तर पर अपने अपने तरीके से लगे हुए हैं।

विवेक ओझा (ध्येय IAS)


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